Wednesday, July 7, 2010

संस्कृति और इतिहास बोध

संस्कृति पर विमर्श प्रकारांतर से मानवजाति पर विमर्श है, क्योंकि इसके केन्द्र में वही है। अपने व्यापकतम अर्थ में संस्कृति वह सब कुछ है, जिसका निर्माण मानवजाति ने किया है और कर रही है-श्रम के औजारों से लेकर घर-गृहस्थी की वस्तुओं तक, रीति-रिवाजों और रहन-सहन के ढंग, तौर-तरीकों से लेकर विज्ञान और कला, धर्म और अनीश्वरवाद, नैतिकता और दर्शन तक। किंतु केवल इतना ही कहें तो संस्कृति की हमारी अवधारणा अथवा परिभाषा एकांगी और साथ ही भ्रामक भी होगी। इसलिए इतना भर याद रखना जरूरी है कि मानव संस्कृति का रचयिता है और साथ ही उसकी रचना भी। ऐसा कहते अथवा मानते हुए हम अपना इतिहास बोध जाग्रत कर रहे होते हैं। अर्थात् यह इतिहास का विवेक है जो हमें बताता है कि मानवजाति संस्कृति का केवल रचयिता ही नहीं है बल्कि वह खुद भी उसी की निर्मिति है। और कह लें कि हमारा इतिहास बोध भी ठीक-ठीक इसी रूप में संस्कृति का अभिन्न हिस्सा है।

अगर संस्कृति शब्द की व्युत्पत्ति पर गौर करें तो यह संस्कृत के बहुत पास का निकलेगा। संस्कृत का शाब्दिक अर्थ है शिष्ट और सभ्य। जो शिष्ट अथवा सभ्य नहीं है, प्राकृत है, जंगली है। बर्बरता संस्कृति की परिधि से बाहर की चीज है। जांगल युग हमारी संस्कति का पोषक नहीं, क्योंकि संस्कृति इस युग को अथवा बर्बरता की एक खास अवस्था को पारकर ही सृजित होती है। संस्कृत शब्द में संस्कार, संशोधन अथवा परिष्कार का भाव जुड़ा हुआ है। एक दूसरे तरीके से कहें तो अलगाव का भाव लिए हुए है। संस्कृत को प्राकृत से अलग करने की मुहिम शुरू हो चुकी है। भाषा के क्षेत्र में भी इसके गणित बिठाये जा रहे हैं। संस्कृत सिर्फ सभ्य और शिष्ट लोगों की भाषा बनी।

लोग अक्सर कहते पाये जाते हैं कि संस्कृत नाटकों में शूद्र और स्त्री समान रूप् से प्राकृत भाषा का प्रयोग करते पाये जाते हैं। संस्कृत केवल संभ्रांत वर्ग के लोग ही बोल पाते थे। वे इस तथ्य का हवाला भर देकर शांत हो लेते हैं। वे कभी नहीं कहते (अज्ञानतावश या भयवश ?) कि निम्न वर्ण (शूद्र) तथा स्त्रियों के संस्कृत भाषा का व्यवहार सिद्धांत रूप में भी वर्जित था। (इस विषय पर विस्तृत जानकारी के लिए पढ़ेंप्राचीन भारत में वर्ण व्यवस्था और भाषा’, जन विकल्प,) नाट्यशास्त्र का लेखक भरतमुनि इसका प्रमुख सिद्धांतकार है। (संभव है, पंचम् वेद कहे जाने का यह भी एक आधार बनता हो।) प्राचीन भारत के इतिहास में यह वह काल है जब वर्चस्व की संस्कृति अपनी जड़ें जमा रही थीं। यहां हम अपनी सुविधा के लिए यह भी कह ले सकते हैं कि संस्कृत (संस्कृति एवं भाषा दोनों ही अर्थों में) वर्चस्व का भाव रहा है। वरना जिस देश में कुत्ता, सियार एवं हाथी तक के लिए संस्कृत संबोधन हैं वहां मनुष्य जाति के संभवतः सबसे बड़े वर्ग को संस्कृत बोलने से क्योंकर रोका जा रहा है ? आज भी महावत हाथी के साथ गच्छ, तिष्ठ जैसे संस्कृत क्रिया-रूपों के ही सहारे संवाद कायम कर पाता है। आज हमारे कुत्तों के नाम भले ही अंग्रेजी भाषा के हों लेकिन उनके संबोधन में उच्चरित शब्द अत्तु संस्कृत ही का है। संस्कृत भाषा के जानकार को पता है कि यह आदरार्थ प्रयुक्त है। अर्थात् आदर (सम्मान) में कहा गया शब्द जिसका भाषिक अर्थ है-‘आइए खाइए।

संस्कृति के क्षेत्र में इस तरह के अलगाव की प्रक्रिया तब शुरू होती है जब विकास की एक खास अवस्था हम तय कर चुके होते हैं। उससे पहले ऐसा करना शायद संभव भी नहीं होता। हम अपने इतिहास के अनुभवों के आधार पर देखें तो साफ होगा कि जिस आर्य अथवा वैदिक संस्कृति पर हम गर्व करते हैं (इतिहास पर गर्व करने का हमें पूरा हक है), वह अपने प्रारंभिक दिनों में ऐसी कुछ भी नहीं थी। बल्कि कहना होगा कि आर्यों का भारत आगमन यहां के मूल निवासियों की संस्कृति की तुलना में एक पिछड़ा कदम था। इसलिए अपने आरंभिक दिनों में आर्यों को जहां-कहीं भी (भाषा तक में) बेहतर और अनुकरणीय हाथ लगता, उसे वे अपनाने में तनिक संकोच करते। यहां तक कि दूसरों की पत्नियों और देवता तक को हड़प् ले जाने में कोई कोताही बरतते। निस्संदेह आर्यों को भारतीय प्रदेशों में औरतों की कमी महसूस हुई होगी। नतीजतन आर्यों के कई देवता तक को बगैर पत्नी के जीवन गुजारने को अभिशप्त होना पड़ा। संभवतः इसी कारण गोरे आर्यों की काली संतानें पैदा हो रही हैं। काले वर्ण के ऋषियों की उस दौर में बाढ़ है। इन्हीं सब बातों को लिखने के लिए मुक्तिबोध की पुस्तक भारत: इतिहास और संस्कृतिकी प्रतियां जला दी गई थीं। आर्य-रक्त की शुद्धता का दावा करनेवाले लोगों को भारतीय संस्कृति का यह विमर्श अच्छा नहीं लगता। इससे श्रेष्ठता और शिष्टता वाला भाव जाता रहता है। वे संस्कृति को एक अत्यंत गोल-मटोल अर्थ में लेना चाहते हैं, जबकि इसकी अनंत परतें हैं। एक साथ कई रूपों और धाराओं में संस्कृति प्रवहमान रहती है। इन धाराओं की आपसी टकराहट और सम्मिलन की प्रक्रिया में ही संस्कृति जीवंत बनती और सवंर्धित होती चलती है। जिस संस्कृति और कौम में टक्कर और आत्मसातीकरण की द्वैत प्रक्रिया नहीं चल रही होती अथवा ठप पड़ जाती है, उसका नष्ट होना तय है। इतिहास बोध से संपन्न व्यक्ति को मालूम है कि मानवजाति द्वारा निर्मित ऐसी कितनी ही संस्कृतियां काल के गर्भ में विलीन हो गईं, क्योकि समय की धारा को अपने अंदर समाहित नहीं कर सकीं।

संस्कृति अपने को कई रूपों में व्यक्त करती है। परंपरा और रीति-रिवाज इनमें प्रमुख हैं। जिस तरह एक बहुलतावादी समाज में संस्कृतियों की बहुलता होती है, उसी तरह परंपरा की भी बहुलता होती है। कई परंपराएं एक ही कालखं डमें साथ-साथ जीवित होती हैं। इनकी आपसी टकराहट से ही नवीनता का उन्मेष होता है। संस्कृति को एक एंतिहासिक संदर्भ में, एक निश्चित ऐतिहासिक दृष्टिकोण से देखने का मतलब एक स्वस्थ और समग्र दृष्टिकोण पैदा करना होता है। यानी किसी देश अथवा जाति की संस्कृति का अध्ययन अथवा उसकी आलोचना प्रस्तुत करते हुए हमें मुख्य रूप से दो बातें-निरंतरता और परिवर्तन को रेखांकित करने का प्रयास करना होता है। निरंतरता और परिवर्तन की इस विछिन्न/अविछिन्न प्रक्रिया में परंपरा संस्कृति की स्मृति होती है। जिस तरह प्रत्येक राष्ट्र और जाति की अपनी स्मृति है, ठीक उसी तरह संस्कृति अपनी परंपराओं में बसती है। मनुष्य की स्मृति में सब कुछ कैद नहीं होता। बहुत कुछ छोड़ते जाते हैं और नया ग्रहण करते जाते हैं। ठीक जैसे आदमी पुराना भूलता और नया सीखता चलता है। लेकिन सब कुछ नहीं भूलता, जबकि भूलना भी काफी अर्थवान है। मनुष्य भूलने की क्षमता खो दे तो शायद सबसे बड़ा अनर्थ हो। संस्कृति भी परंपरा का त्याग करती चलती है और नवीनता का अंगीकार। यहां इतिहास बोध यह निर्णय देता है कि परंपरा हमेशा तो त्याज्य है और ही नवीनता हमेशा ग्राह्य। कालिदास जब मालविकाग्निमित्र में कहते हैं कि जो पुराना है वह सभी सुंदर नहीं है और नया मात्र नया होने से ही निन्द्य है, तो इसी बात को वे भिन्न तरीके से कह रहे होते हैं। यह कालिदास का इतिहास जनित विवेक ही है जो परंपरा और नवीनता के बीच फर्क की पहचान करता है। किसी देश अथवा जाति के इतिहास में क्या ग्राह्य है और क्या अग्राह्य-इसका सम्यक फैसला हमारी इतिहास दृष्टि करती है। संस्कृति के अंदर सब कुछ बचा लेने लायक नहीं होता। बहुत कुछ समय की मार खाकर बेजान हो जाता है, इसलिए ग्राह्य-अग्राह्य का प्रश्न महत्वपूर्ण हो उठता है। परंपरा का वह हिस्सा जो जो वर्तमान के लिए अनुपयोगी और बेजान हो गया हो, त्याज्य है। परंपरा की ताबीज बनाकर रखने की जरूरत नहीं है, क्योंकि तो संपूर्ण सुंदर है, नितांत असुंदर ही। उसमें सक्रियता भी है, प्रमाद भी, स्वार्थ भी है परमार्थ भी, संकीर्णता भी है, उदारता भी। इसलिए कालिदास का यह उद्गार कि पुराणमित्येव साधु सर्व-जो समय के बोध में सना है, हमेशा याद रखने लायक है। परंपरावादियों के लिए तो और भी, क्योंकि अतीत का उनका यह कथन हमारी परंपरा का अभिन्न हिस्सा हो चुका है, और जो वर्तमान समय में भी उतना ही सटीक है।

किंतु कहना होगा कि अपनी ही उक्ति से कालिदास ने कोई खास नसीहत नहीं ली। उन्होंने उन्हीं वर्णाश्रम अर्थों की कीर्ति बखानी जो भारतीय संस्कृति पर कालिमा का टीका सिद्ध हो चुके थे। अलबत्ता कहीं-कहीं रोष अवश्य प्रकट किया है। उनकी शकुंतला पुरुष के अधिकारों पर व्यंग्य करती है, उनकी सीता वाच्यं त्वया मदवचनात्स राजा कहकर राम को संदेश भेजती है। परंतु वास्तव में यह विद्रोह नहीं, विद्रोह की विडंबना है। शूद्र तपस्वी शम्बूक के राम द्वारा रघुवंश में मारे जाने पर महाकवि की लेखनी में बल तक नहीं पड़ता, वह स्वयं उस तपस्वी को उसके अनाचार पर धिक्कारता है। कालिदास का इतिहास-बोध-विरोध कई बार आत्म-प्रताड़ना तक को जन्म देता प्रतीत होता है। धूत कहो अवधूत कहो जैसी पंक्ति वही लिख सकता है जिसने अपने नथूनों में वर्ण व्यवस्था की संड़ांध महसूस की हो।

अज्ञेय ने शम्बूक -वध का एक नया पाठ तैयार किया-‘मैंने शम्बूक की कथा पढ़ी है। मैं उसे कभी उस अर्थ में ग्रहण नहीं कर पाया, जिस अर्थ में मुझे समझायी जाती रही है। शम्बूक वेदाध्ययन करने जा रहा था कि यज्ञ करने जा रहा था, वर्णांतर कर्म का यह छोटा-सा अपराध (छोटा ही सही, अपराध तो है ?) कदापि उस दंड का भागी नहीं था जो उसे मिला। इतना ही क्यों, यह प्रश्न कोई क्यों नहीं पूछता कि शूद्र की तपस्या में इतना बल था कि ब्राह्मण का बेटा मर जाये, तो ब्राह्मण का ब्राह्मणत्व का बल कहां चल गया था? क्या उसकी सीमा यही थी कि राजा के सामने जाकर रिरिया ले? क्यों नहीं राम ने भी उस ब्राह्मण से यह पूछा कि वह क्यों इतना हीनतेज हुआ? ’ अज्ञेय के लिए राम की तुलना में शम्बूक ज्यादा ग्राह्य है, क्योंकि शम्बूक स्थिति को, स्थितिशीलता को, परिवेश को बदलना चाहता है और राम उसे बनाये रखना चाहते हैं। संस्कृति की यह गतिशील व्याख्या इतिहास बोध और काल की मर्यादा से प्रेरित है। अत्यंत सपाट शब्दों में कह सकते हैं कि तात्कालिकता का दबाव है यह।

3 comments:

P.N. Subramanian said...

अति सुन्दर. "मानवजाति द्वारा निर्मित ऐसी कितनी ही संस्कृतियां काल के गर्भ में विलीन हो गईं, क्योकि समय की धारा को अपने अंदर समाहित नहीं कर सकीं।" बिलकुल सही कह रहे हैं. इस सुन्दर आलेख के लिए साधुवाद.

Rangnath Singh said...

बहुत अच्छा लेख है। लेकिन आप इसे थोड़ा संवार के लगतो तो पढ़ने वालेां को असानी होती। पूरा लेख एक पैरा में दिख रहा है!

देवेन्द्र पाण्डेय said...

sangrahaniiy lekh.