Saturday, July 10, 2010
...जैसे मुझे ही सम्मान मिला हो
आज ‘प्रभात खबर’ (पटना संस्करण) के मुख पृष्ठ पर हिन्दी के, और अव्वल तो बिहार के एक सुपरिचित-सुपठित कथाकार सुलभ जी की तस्वीर छपी है। तस्वीर यूके कथा सम्मान के अवसर की है। तस्वीर के नीचे लिखा है-‘खबर पृष्ठ आठ पर।’ पृष्ठ आठ को मैंने तीन बार देखा, बेटे से भी दिखवाया, लेकिन खबर नहीं थी। पत्रकारिता के वर्तमान दौर में खबर का न होना भी किसी अखबार के लिए ‘खबर’ हो सकती है। फिर इसका तो नाम ही है ‘प्रभात खबर’। गलती मेरी भी हो सकती है कि मैं सुबह के आठ बजे यह सब खोज रहा था!
कुछ दिन पहले सुलभ जी को उक्त सम्मान दिये जाने की खबर मैंने इसी अखबार में पढ़ी थी। खबर पढ़ते हुए लगा कि अरे, यह नाम अबतक छुटा हुआ था। वैसे यह नाम इतने दिनों तक छोड़ दिये जाने के लिए नहीं था। चलिए, आयोजकों ने अपनी गलती दुरुस्त कर ली। उन्हें ‘देर आए, दुरुस्त आए’ में विश्वास रहा हो शायद।
सुलभ जी एक कथाकार हैं, उससे पहले वे नाटककार हैं। मेरा मन बार-बार उन्हें एक नाटककार के रूप में देखने को करता है। उनकी कहानियों में मुझे नाटक के तत्वों का भरपूर उपयोग मिलता है। नाटकीयता के बगैर व्यंग्य की कल्पना नहीं की जा सकती। चाहे वह व्यक्ति पर व्यंग्य हो या व्यवस्था पर। विद्रूप को केवल व्यंग्य के सहारे ही बगैर अश्लील हुए प्रदर्शित किया जा सकता है। विधा के स्तर पर भी व्यंग्य और नाट्य बिल्कुल पास-पास के लगते हैं। व्यंग्य में शब्द कम हैं तो नाट्य में इससे भी कम। लेकिन असर शायद सर्वाधिक। सुलभ जी की कहानियों में जैसी नाटकीयता है, कविता में केवल आलोक धन्वा और मुक्तिबोध, शमशेर जैसे चंद नाम ही साध पाते हैं। निराला शायद स्रोत ही साबित हों।
और इन सब से ऊपर वे एक ‘मनुष्य’ हैं। एक पाठक के रूप में रचना की मेरी अपनी कसौटी है कि रचना में किसी लेखक का ‘व्यक्तित्व’ कितना बड़ा होकर आता है। रचना और रचनाकार-दोनों मुझे साथ-साथ प्रभावित करते हैं। ऐसा कभी नहीं हुआ कि रचना से प्रभावित होकर भी रचनाकार से अप्रभावित ही रहा। सुलभ जी ने दोनों ही स्तरों पर मुझे प्रभावित किया है। शायद इतना कि जब उन्हें सम्मान दिये जाने की बात पढ़ी तो लगा जैसे मुझे ही सम्मान मिला हो।
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