Tuesday, July 27, 2010

कविता संस्कृति का एक हिस्सा है

कविता संस्कृति का एक हिस्सा है और निरंतर कविता संस्कृति को बढ़ाने का भी काम करती है जिसका मनुष्य एक अहम हिस्सा है। इसलिए कह ले सकते हैं कि कविता सबसे पहले रचनाकार को बदलती है। कविता लिखने के बाद या लिखते हुए कवि एक सामान्य आदमी से ऊपर उठा होता है। अगर कविता यह करने में असफल हो तो रचनाकार की भी असफलता मानी जा सकती है। समाज भी व्यक्तियों से बना है। इस हिसाब से कविता समाज को बदलने का काम करती है लेकिन यह एक दीर्घकालिक प्रक्रिया है। इतनी लंबी कि कभी-कभी हम बदलने या बदले जाने की आशा खो बैठते हैं। कविता और समाज परस्पर एक-दूसरे को बदलने की चेष्टा करते हैं, ऐसा नहीं कि सिर्फ कविताएं ही समाज को बदलती हैं। बल्कि समाज भी कविता पर अपना असर छोड़ते चलता है तभी तो कोई कविता किसी समय में ज्यादा मूल्यवान होती है और कभी अपना अस्तित्व खो बैठती है। यह सभ्यता और संस्कृति का विराट संघर्ष है। कविता समाज को बदलने में उस तरह का औजार कभी नहीं होती, जिस तरह से समाज को उत्पादन के औजार और तकनीकी विकास बदलते हैं।
 
समय भी कविता को प्रभावित करते चलता है। कविता ही नहीं, हमारी फिल्मों में जो वाक्य संरचना है, वह छोटी होती जा रही है। संस्कृत से प्रभावित वाक्य लंबे हुआ करते थे। यह आधुनिकता की एक पहचान भी हो सकती है। हमारे पास आज वैसे नायक नहीं हैं जैसे सामंती युगों में हुआ करते थे। इसलिए महाकाव्य भी नहीं रहे। लंबी कविता के संदर्भ में देखें, तो निराला, मुक्तिबोध के बाद आलोक धन्वा ही लंबी कविता को साध पाते हैं। वजह यह भी हो सकती है कि निराला और मुक्तिबोध की कविताओं में जो एक व्यापक, विश्वजनीन (वैश्विक) दृष्टि है वह हिन्दी के कई कवियों के पास अनुपलब्ध है। तकनीकी विकास ने हमारे समय और समाज को संक्रमणशील बना दिया है। हमारे मूल्य स्थायी भाव लेकर नहीं आते। रोजमर्रा के सामान अब लिखो-फेंको की शैली में आते हैं। यानी हमारी जीवन दृष्टि बदल गई है। हिन्दी कविता इन कारणों की व्यापक जड़ की तलाश में कई अलग-अलग कहानियां गढ़ती है। इन कहानियों को एकसूत्र किये बगैर लंबी कविता लगभग असंभव है।
इन दिनों कविता के सामने नयी चुनौतियां आयी हैं। हमारा वर्तमान समय तकनीकी परिवर्तन का समय है। यह समय आउटडेटेड होने का भी है। कविता हमारी समस्याओं का बहुत ठोस रूप में समाधान नहीं कर सकती। कविता न रोटी पैदा कर सकती है न गरीबी की आग ही बुझा सकती है। यह हमारे अंदर सौंदर्य बोध पैदा कर सकती है जिससे अप्रत्यक्ष रूप से हम मनुष्य विरोधी होने से बच सकते हैं। इसी संदर्भ में कविता की भूमिका जांची जा सकती है। हमारे समय की कविता अपना काम बखूबी कर रही है।
 
मुझे लगता है कि आज लेखक आम आदमी हो गया है। लेखक की सामाजिक हैसियत आम आदमी से अलग नहीं है। तब तो आम आदमी का विस्तार आप कह सकते हैं जिसमें एक बहुत बड़ी फौज वैसी है जिसका शब्दों की दुनिया से कोई बना-बनाया रिश्ता नहीं है। आम आदमी की कविता कहते हुए अक्सर हम भ्रम के शिकार होते हैं। निराला की कविता अपने ही समानधर्मा को समझ में नहीं आ रही थी। मुक्तिबोध भी कम कठिन कवि नहीं हैं। दुनिया को बदलने का मार्क्स ने जो घोषणा पत्र तैयार किया वह अर्थशास्त्र के पंडितों को भी समझ में नहीं आता। लेकिन एक समय आता है जब एक अपढ़ व्यक्ति भी मार्क्सवाद के पक्ष में खड़ा दिखता है। आम जन की कविताएं और लोकप्रिय कविताएं दो अलग चीज हैं। साहित्य में लोकप्रियतावाद सबसे घटिया चीज है जिसके शिकार लेखक बनते रहे हैं। एक समय में कोई कविता लोगों की जुबान पर होती है, जैसे होली में कीचड। फिर साल भर हम उससे अलग रहते हैं। दिनकर और बच्चन लोकप्रिय रहे हैं, किन्तु हिन्दी साहित्य या संकीर्णता में कहें तो आम जन के साहित्य में इनकी बहुत थोड़ी भूमिका रही है।
 
आलोचक नंदकिशोर नवल ने अपने एक इंटरव्यू में कहा था कि एक असफल कवि आलोचक हो जाता है। नवल जी शायद अपनी बात कर रहे हैं, यद्यपि उनका मानना है कि वे तो आलोचक भी नहीं हो सके। यह एक बुझौअल की तरह है कि असफल कवि आलोचक हो जाता है। एक असफल मनुष्य भेड़-बकरी नहीं होता। इस तरह के कथन का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है। बचपन में पढ़ते हुए ऐसा लगा था कि प्रेमचंद गणित में फेल करते थे, इसलिए उपन्यासकार हो गए। कविता लिखने और आलोचना करने को मैं अलग करके नहीं देखता। कविता भी संस्कृति की आलोचना ही है। अलबत्ता दोनों के फॉर्म में फर्क है। इधर प्रेमकुमार मणि ने एक अखबार (शिखर भारतेन्दु) में कहा कि कविता सामंती समाज की विधा है। ऐसा कहते हुए कई तरह के अर्थ संप्रषित किये जा सकते हैं, अर्थात् कविता सामंती समाज की उपज है अथवा कविता अपने चरित्र में सामंती है। दोनों ही अर्थ सही नहीं लगते। हमारे यहां कविता ऋग्वेद से शुरू होती है जहां समाज कबीलाई है। बराबरी का हक और दावा है। समाज में अभी चौधरी नहीं बने हैं। यहां से हटकर सामंती समाज में भी कविता विद्रोह की कविता है। कल्पना करें तुलसीदास के समाज की जिसमें पिता की आज्ञा अकाट्य है, वहां भी लक्ष्मण के बेहोश होने पर राम पिता की आज्ञा के विरुद्ध जाते वक्तव्य देते हैं। बगीचे में राम और सीता के बीच प्रेम का पैदा होना सामंती मूल्यों के विरुद्ध ही जाता है। तुलसीदास का यह कहना कि धूत कहो अवधूत कहो, रजपूत या जोलहा जो चाहो, कह लो, क्या सामंती और मनुवादी मिजाज की कविता है ? पाठक कई बार पूर्वाग्रहों का शिकार होता है। एक अच्छा पाठक और लेखक इससे बचने की कोशिश करता है। जो जितना बच पायेगा वह उतना ही बड़ा व्यक्ति, लेखक और पाठक होगा। सत्ता पर बैठा हुआ व्यक्ति भी जब कविता की सोचता है तो सत्ता-विरोधी हो जाता है। तभी तो अशोक वाजपेयी जैसा कवि कई बार क्रांतिकारी लगने लगता    है।                                                                                                                                                    
स्रोत: शिखर भारतेन्दु, शिमला, 7 जून, 2003।  

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