Friday, August 13, 2010

कवि का चेहरा

देवी प्रसाद मिश्र
आलोचना के अंक 91 में युवा कवि देवीप्रसाद मिश्र की ‘मुसलमान’ नामक कविता छपी है जिसकी कुछ खास स्थापनाओं पर आपत्ति करके शानी ने नवभारत टाइम्स में उसे राष्ट्रीय बहस का मुद्दा बना दिया। असद जैदी ने भी विरोधपूर्ण बात कही है। कुछ ने इसे ‘साम्प्रदायिक’ कविता की संज्ञा दी है। किन अर्थों में लिया जाए, यह कविता पर पूरी बहस के बाद ही तय होगा। फिलहाल इतना तय है कि यह न तो इतिहास की सच्चाइयों को उद्घाटित करती है और न ही साम्प्रदायिकता के विरोध में मोर्चाबंदी कर पाती है।

कविता में जो द्वंद्व उभरकर आया है वह व्यक्ति का-खुद कवि का अंतर्विरोध है। कवि को न तो इतिहास की कोई स्पष्ट समझ है न तो समाज को देखने का सही नजरिया है। इसलिए इतिहास में वर्णित मिथकों का जिक्र करके प्रगतिशीलता का मुखौटा लगाने की कोशिश में वह असफल हो जाता है। बजाए इसकी, प्रगतिशीलता के आइने में उनका रोबीला साम्प्रदायिक चेहरा बेपर्द हो आता है। कवि इतिहास के मिथकों में फंसकर खुद नये मिथक गढ़ने शुरु कर देता है। कविता की पंक्ति एक बड़े झूठ को स्थापित करने की कोशिश से प्रारंभ होती है। कवि ने लिखा है-‘उन्होंने अपने घोड़े सिंधु में उतारे/और पुकारते रहे हिंदू! हिंदू!! हिंदू!!!/बड़ी जाति को उन्होंने बड़ा नाम दिया।’ कवि को शायद यह मालूम नहीं कि सिर्फ सिंधु प्रदेश को मुसलमानों ने हिंदू कहा। किसी बड़ी जाति या समुदाय को उन्होंने हिंदू से संबोधित नहीं किया था।

हिंदुस्तान में जब मुसलमानों का आगमन (आक्रमण नहीं क्योंकि इसी अंदाज में आर्य भी आए थे) हुआ तो यहां के निवासियों के साथ बेशक उनकी झड़पें हुईं जिनमें लोगों को अपनी जानें भी गंवानी पड़ीं। हत्या उनका कहीं से भी लक्ष्य नहीं था। असलियत तो यह है कि ‘वे मृत्यु के लिए नहीं लड़ते थे।’ वे निर्माण के लिए बेचैन थे। पीछे की पंक्ति को अगर इसके साथ मिलाकर देखा जाए तो थोड़ी रोशनी मिल सकती है। ‘उनकी मुट्ठियों में घोड़ों की लगामें/और म्यानों में सभ्यता के/नक्शे होते थे।’ सवाल उसके निर्माण की चाहत से है। इस सवाल के उठते ही कवि उनके आगे ‘वे मुसलमान थे’ का पर्दा टांग देता है और अंधेरे में सब कुछ रफा-दफा हो जाता है। कवि ने उन्हें निर्माण की प्रक्रिया से अलग काटकर मुसलमान बने रहने के सार्वकालिक सत्य के साथ जोड़ दिया। यह कवि की जाग्रत चेतना है जो कभी अनजाने में नहीं हो रहा।

भारत में आगमन के बाद मुसलमान हिन्दुस्तानी तहजीब के एक अंग बन चुके थे। आपस में लोग इतने घुल-मिल गए थे कि प्रायः उन्हें पता ही नहीं लगता था कि वे मुसलमान थे या नहीं थे। अजीब बात है, जिसने भारत पर आक्रमण करके मंदिरों को लूटा, सोना-चांदी अपने देश उठा के ले गए, जो इतिहास के पूरे कालखंड में एक मुसलमान की तरह रहे वे अपने वंश एवं अतीत को भूल क्यों गए ? उनके अलग एवं स्वतंत्र अस्तित्त्व को किसने खतरा पहुंचाया ? भारत पर आक्रमण उन्होंने मुसलमान की हैसियत से किया था। कुछ दिनों बाद उनकी वह पहचान लोप होती नजर आई (कवि को)। किसी का इतिहास खत्म न हो जाए इसलिए कवि उसके अतीत की ओर ध्यान देता है, उसे गौरवान्वित करता है। फिर कवि को अपनी ईमानदारी एवं साफगोई का गुमान भी है। उनका ऐलान है-‘यदि सच को सच की तरह कहा जा सकता है/तो सच को सच की तरह सुना जाना चाहिए।’ इसलिए वे हिंदू-मुसलमान यानी जनमानस की भावना के विरुद्ध यह घोषणा करते हैं कि ‘वे मुसलमान थे।’

कवि को इतिहास का कितना पुख्ता ज्ञान है वह कवि की खास चिंता से आपको मालूम हो जाएगा। उनका मानना है कि ‘वे न होते तो उपमहाद्वीप के संगीत को सुननेवाला खुसरो न होता/वे न होते तो पूरे देश के गुस्से से बेचैन होनेवाला कबीर न होता/वे न होते /तो भारतीय प्रायद्वीप के दुख को कहनेवाला गालिब न होता।’ यह तो ठीक उसी तरह की बात हुई जैसे अंग्रेज न होते तो हम आजाद न होते। इस देश में मुसलमान क्यों आए ? कवि का जवाब है क्योंकि वे आ सकते थे। क्या यह नियम कबीर या गालिब के होने के साथ लागू नहीं होता ? मुसलमानों के आगमन से ही कबीर, गालिब पैदा हुए यह इतिहास की कौन-सी व्याख्या है ? असलियत तो ये है कि ये सारे लोग सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों की उपज थे। मार्क्सवादी अंदाज में कहा जाए तो ‘हिस्टॉरिकल डेवलपमेंट’ की नियति थे।

कवि के पास एक घटिया दर्जे की सोच है कि मुसलमानों में मुसलमान होने की वजह से डर है। कवि की अजीब कल्पना है कि मुसलमान रहते हिंदुस्तान में हैं और भाई-बंदे तथा रिश्तेदार पाकिस्तान में खोजते हैं। कविश्री की नजरों में में वे डरते कम अकड़ते ज्यादा हैं। यह कवि का साम्प्रदायिक दुराग्रह है। ध्यान रहे कि कवि ने बार-बार अपनी तरफ से पाठक को स्मरण कराने की यह कोशिश की है कि ‘वे मुसलमान थे।’ इसके प्रति एक जबर्दस्त आग्रह है उनमें। दूसरी ओर कवि ने यह भी स्वीकारा है कि ‘वे चट्टान और ऊन की तरह सच थे/वे सभ्यता का अनिवार्य नियम थे।’ ऐसे में कवि से हमारी अर्ज हो सकती है, ‘वे मुसलमान थे’-इसके बाद भी वे किसी सभ्यता के अनिवार्य अंग बने हुए थे ? क्या वह मुसलमानी सभ्यता थी ? अगर यही सच है तो इस सभ्यता का नियम नहीं नियंता थे। और अगर वे हिंदुस्तानी तहजीब के अंग थे तो क्या बेशक मुसलमान भी थे ?

पंडित जवाहरलाल नेहरु ने ‘हिंदुस्तान की खोज’ में लिखा है कि हिंदुस्तानी तहजीब के निर्माण में मुसलमानों का महत्त्वपूर्ण योगदान था। मुगलकाल में अकबर ने राजपूतों के साथ विवाह-संबंध स्थापित करके यह साबित कर दिया था कि वे अब मुसलमान नहीं हैं। वे हिंदुस्तानी हैं। प्रेमचंद अपने जमाने में हिंदुओं एवं मुसलमानों की संस्कृति में कोई स्पष्ट विरोधाभास खोजने में असमर्थ रहे, बल्कि उन्होंने ‘साझी संस्कृति’ की बात की। उन्होंने लिखा कि दोनों की समस्या एक-सी है। दोनों ही अशिक्षा, भुखमरी और गरीबी से एक तरह से पीड़ित थे। दोनों की संस्कृति भूख की संस्कृति है।

कविता के अंत में कवि का जयनाद है कि ‘वे मुसलमान हैं।’ यानी हिंदुस्तान की भूमि पर अब भी वे विदेशी ही बने हैं। जिसने हिंदुस्तानी तहजीब के निर्माण में पूरा सहयोग दिया हो वो विदेशी कैसे हो सकता है ? विदेशी होने के लिए बाहर से आगमन ही काफी है तो आर्य को भी, जो मूल निवासी होने का दावा करते हैं, इसी कोटि में रखा जाना चाहिए। कवि ने यह घोषित करके कि ‘वे मुसलमान हैं’, जनवादी एवं प्रजातांत्रिक ताकतों पर करारी चोट की है। सारा इतिहास क्षण भर में लुप्त हो जाता है।

कहना न होगा कि जहां लोग राष्ट्रीय संस्कृति के निर्माण की ओर अग्रसर होने की बात करते हैं वहीं देवीप्रसाद मिश्र जैसे तथाकथित प्रगतिशील कवियों के साम्प्रदायिक मंसूबे से सारे किए पर पानी फिर जाने जैसा होता है। यह गजब का विरोधाभास है।
प्रकाशन: नवभारत टाइम्स, (पत्रों का कॉलम गांधी मैदान में) पटना, 16 नवंबर 1990। 

1 comment:

Rahul Singh said...

जैसा यह पढ़कर समझ में आ रहा हूं, समूची बात हमेशा की तरह अपनी पक्षधरता या प्रतिबद्धता की अभिव्‍यक्ति है और उसके लिए कुछ अध-कचरे से 'तथ्‍य' चुन लिये जाते हैं और तथ्‍यों में सच्‍चाई का अंश तो सदा संदिग्‍ध होता ही है. कई बार यह भी लगता है कि इस तरह का लेखन संवेदनशीलता की परीक्षा लेने और इस सबके बावजूद सौमनस्‍य बना रहे, इस उद्देश्‍य से तो नहीं.