हिन्दी त्रैमासिक ‘आलोचना’ के अंक 91 में देवी प्रसाद मिश्र की ‘मुसलमान’ शीर्षक से एक कविता आयी थी। इस पर काफी बहस भी चली। कविता में कवि की मूल प्रवृत्ति ये स्थापित करने की थी कि हिन्दुस्तान में सदैव से ही मुसलमानों की एक अलग पहचान व संस्कृति अस्तित्व में रही है। जारी बहस के दौरान कथाकार श्री चन्द्रमोहन प्रधान ने मेरी प्रतिक्रिया पर टिप्पणी करते हुए भारतीय मुसलमान में अलगाववाद की प्रवृत्ति को स्वीकारा था। चर्चित हिन्दी आलोचक श्री नन्दकिशोर नवल जी ने जोर देकर कहा कि ‘भारत में आज भी मुसलमान एक ‘मुसलमान’ के रूप में जाना जाता है-यह इतिहास का सच है।’(बातचीत के क्रम में)
भारत में मुसलमान के आगमन का इतिहास 712 ई. से प्रारंभ होता है जब अरबवालों ने सिंध पहुंचकर अपना अधिकार जमाया था। उसके करीब तीन सौ साल तक हिन्दुस्तान पर और कोई हमला या धावा न हुआ। लगभग 1000ई. के आसपास महमूद गजनवी का आक्रमण शुरू हुआ। उसका इरादा हिन्दुस्तान को कहीं से भी अपना घर बनाने का नहीं था। इसलिए वह बार-बार मंदिरों को लूटता और सोना-चांदी से सजकर पुनः वापिस लौट जाता था। 1030 ई. में महमूद गजनवी की मृत्यु हो गयी। उसकी मृत्यु के एक सौ साठ से ज्यादा सालों तक कोई दूसरा हमला न हुआ।
हिन्दुस्तान में मुसलमानों के बसने की प्रक्रिया बारहवीं शताब्दी के अंत से शुरू होती है। नेहरु जी ने ‘हिन्दुस्तान की कहानी’ में लिखा है कि ‘हिन्दुस्तान उनका घर बन गया और दिल्ली उनकी राजधानी रही-दूरदराज गजनी नहीं... हिन्दुस्तानी बनने की प्रक्रिया तेजी से चली और उनमें से बहुतों ने इस मुल्क की औरतों से ब्याह कर लिये।’ कहा जाता है कि अलाउद्दीन खिलजी ने एक हिन्दू औरत के साथ ब्याह किया और इसी तरह उसके बेटे ने भी।
हिन्दुस्तानी बनने का यह सिलसिला मुगलकाल में और तेजी से चला। अकबर ने हिन्दू कन्या के साथ विवाह किया। राजपूतों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध स्थापित किये। हिन्दू सामंतों एवं नरेशों को बड़े-बड़े सम्माननीय पदों पर बिठाया गया। अकबर ने एक मुसलमान की हैसियत से हिन्दुस्तान पर शासन नहीं किया, बल्कि इतिहासकार बिपन चंद्र ने तो यहां तक लिखा है कि ‘अकबर, जहांगीर और शाहजहां के शासनकाल में राज्य मूलतः एक धर्मनिरपेक्ष राज्य था। (आधुनिक भारत, 108)। हालांकि यह एक तरह के अतिवाद से ग्रस्त है।
वैसे लोग जो मुसलमानों को इस्लाम के प्रचारक तथा हिन्दू विरोधी के रूप में देखते हैं, वे इनके धर्मनिरपेक्ष मूल्यों की ओर ध्यान ही नहीं देते। अक्सर इस बात का हवाला दिया जाता रहा है कि मुसलमान शासकों ने हिन्दू मंदिरों को इसलिए तोड़ा कि वे इस्लाम धर्म के माननेवाले लोग थे। लेकिन इतिहासकारों की महत्वपूर्ण खोजों के आधार पर इसे गलत साबित कर दिया गया है। ऐसे भी संदर्भ उभरकर सामने आये हैं जब मुसलमान शासकों ने मंदिरों का निर्माण कराया हो तथा हिन्दू दातव्य संस्थान स्थापित कराया हो।
‘हिन्दू धार्मिक संस्थाओं की स्थापना में मुस्लिम राज्य की हिस्सेदारी के बारे में सबसे पुराना प्रमाण तुगलक काल से है। ...(मध्य प्रदेश) में 1228 ई. का एक शिलालेख मिलता है, जिसमें मुहम्मद-बिन-तुगलक के आदेश पर एक गांव-मठ के निर्माण की घोषणा है। आलेख के अनुसार यह इमारत ख्वाजा जलालुद्दीन ने पूरी करायी थी और अपने नौकर धनाऊ को उसका प्रबंधक नियुक्त किया था।’ (इक्तदार आलम खान के लेख से उद्धृत)।
आगे चर्चा करते हुए खान साहब ने लिखा है कि एक समकालीन जैन ग्रंथ को आधार बनाकर ऐसा कहा जा सकता है कि मुहम्मद-बिन-तुगलक शत्रुंजय मंदिर गया था और उसने जैन संघ के एक प्रमुख के लिए उपयुक्त कुछ धार्मिक संस्कार भी किये थे।
जो लोग आज हिन्दू एवं मुसलमान को दो भिन्न ‘जात’ एवं ‘संस्कृति’ के रूप में देखने के आदी हैं वे भी यह मानेंगे कि ये दोनों शुरू से ही दो भिन्न कौम हैं। इतिहास का दुर्भाग्य यह रहा है कि तुर्क, मंगोल तथा पठान यानी लगभग सारे आक्रमणकारी को मुसलमान मान लिया गया है। ‘बाहर से जो मुसलमान आये, वे किसी एक जाति के न थे, उन सबकी भाषा एक न थी। उनका सांस्कृतिक स्वर भी एक-सा न था। उनमें शरीफ, बदमाश, लुटेरे, व्यापारी, विद्वान, जाहिल हर किस्म के लोग थे। इसलिए यह धारणा कि मुसलमान एक जाति के थे, उनकी एक भाषा और संस्कृति थी, गलत है।’ (भाषा और समाज, पृष्ठ 285)
कहना न होगा कि मध्यकाल में जितने भी विदेशी हमलावर आये उनको निःसंकोच भाव से मुसलमान मान लिया गया। नेहरु जी ने हिन्दुस्तान की कहानी’ में लिखा है कि ‘‘चंगेज खान मुसलमान नहीं था, जैसाकि कुछ लोग इसलिए ख्याल करते हैं कि उसका नाम अब इस्लाम से मिल-जुल गया है। कहा जाता है कि वह शामाई मजहब का माननेवाला था,...लेकिन नाम से लाजिमी तौर पर उस लफ्ज की तरफ ध्यान जाता है जो अरबवालों ने बौद्धों के लिए दे रखा था, यानी शामानी, जो संस्कृत ‘श्रमण’ से निकला है।’’
हिन्दुस्तान की कहानी है कि यहां जितने तरह के लोग आये (अंग्रेजों को छोड़कर) वे यहीं के होकर रह गये। आज मुसलमानों के बीच सामाजिक या सांस्कृतिक रूप से वैसा कुछ भी नहीं बचा है जिसके आधार पर उनके अलग एवं स्वतंत्र अस्तित्व को स्वीकार किया जाय। कुछ दिन पहले तक ये शोर था कि हिन्दू अपने शव को जलाते हैं जबकि मुसलमानों में जमीन के अंदर गाड़ने का रिवाज है। कालक्रम से यह भेद भी जाता रहा। हड़प्पा की खुदाई के बाद वैसे साक्ष्य प्रस्तुत हुए हैं जिनकी बदौलत यह धारणा बनती है कि प्राचीन काल में अपने बीच शवों को गाड़ने की प्रथा जोरों से प्रचलित थी। फिर भी भेद को बरकरार रखने की कोशिश होती है। अतएव ये कहना अनुचित न होगा कि ‘‘हिन्दुओं एवं मुसलमानों के अलगाव के हम इतने आदी हो गये हैं कि जहां एका था और आज भी बना हुआ है, उसे हम देख नहीं पाते। हिन्दू जाति अलग है, मुस्लिम जाति अलग है, यह सिद्धांत अनेक प्रगतिशील विचारकों तक में घर कर गया है और अगर निकल भी गया है तो कुछ निशान छोड़ गया है।’’ (भाषा और समाज, पृष्ठ 305)
अपने यहां मुसलमानों की अलग कोई संस्कृति पनप नहीं सकी इसका सबसे ठोस कारण था कि वे जिन देशों से यहां आये वहां ‘नेशन’ के निर्माण की प्रक्रिया शुरू न हुई थी, राष्ट्रीयता की भावना का विकास न हो सका था। उन्हें अपने मुल्क की सरहद से प्यार न हुआ था, न तो वे कभी भी अपना घर छोड़कर हिन्दुस्तान में बसने न आते। वे हिन्दुस्तान में बसने आये थे, ईसाई धर्मावलंबियों की तरह इस्लाम का प्रचार करने नहीं। आप सबसे यह बात छिपी न है कि जाति निर्माण की प्रक्रिया सामंतवाद के पतन एवं पूंजीवाद के अभ्युदय के साथ शुरू होती है। और आप जानते हैं कि मुसलमानों का आगमन हिन्दुस्तान में भिन्न-भिन्न कबीलों के रूप में हुआ। इसलिए हिन्दुस्तानी तहजीब के लिए ये मुश्किल नहीं था कि उनलोगों को अपने अंदर पचा ले जाये। शक, कुषाण, हूण, सिथियन तमाम आक्रामक यहां आकर इसकी मिट्टी में रच-पच गये। फिर मुसलमानों के स्वतंत्र विकास की कौन सी परिस्थितियां हिन्दुस्तान ने छोड़ रखी थीं ? ये तो कुछ खास पाजी टाईप हिन्दू सम्प्रदायवादी लोग हैं जो मुसलमानों के अलग कौम की बात सोचते हैं। उनका पूरा नहीं आधा सहयोग स्वीकारते हैं। फलतः उन्हें आधा इलाहाबाद देने की घोषणा होती है।
सन् 47 के देश विभाजन के पीछे इसी दो भिन्न कौम की नीति काम कर रही थी। इससे हमारे देश को, हमारे हिन्दू धर्म की सहिष्णुता के दर्शन को इतना जबर्दस्त धक्का लगा कि उसकी क्षतिपूर्ति की बात भी हम नहीं सोच सकते। अंग्रेजी राज की स्थापना के पहले हिन्दुस्तान में दो भिन्न कौम की भावना नहीं थी। अंग्रेजों की हुकूमत ने देश को चलाने के लिए, हिन्दुस्तान की आबादी को तोड़ने के लिए ‘हिन्दू’ एवं ‘मुस्लिम’ राष्ट्र का मुहावरा तैयार किया। अंग्रेजों को जहां भी शासन के लिए जनता को बांटने की जरूरत हुई उन्होंने धर्म, जाति और राष्ट्र के नाम पर लोगों को एक दूसरे के खिलाफ खड़ा किया। भारत में ‘हिन्दू’-‘मुसलमान’ को दो भिन्न कौम में बांटने का उद्येश्य ‘फूट डालो और राज करो’ की तर्ज पर शासन चलाना था। आयरलैंड में भी अंग्रेजों ने ऐसा ही किया था। यह उन दिनों साम्राज्यवादी साजिश का एक हिस्सा था। इसलिए अगर आज भी कोई ‘हिन्दू’ एवं ‘मुस्लिम’ राष्ट्र तथा संस्कृति की वकालत करेगा, जाने तथा अनजाने में उसी साम्राज्यवादी साजिश का शिकार बनेगा।
प्रकाशन: जनशक्ति, 9 दिसम्बर, 1991।
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उम्दा पोस्ट.
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