इतिहास लेखन शुरू से ही एक अत्यंत ही विवादस्पद मुद्दा रहा है। प्राचीन भारत में भी इतिहास लेखन के अनेक सफल प्रयास हुए हैं और उसी समय से इस बात पर जोर दिया जाता रहा है कि इतिहास लेखन को वैज्ञानिक आधार दिया जाय तथा इसे किसी भी प्रकार के व्यक्तिगत पूर्वाग्रह से वंचित रखा जाय। ‘राजतरंगिनी’ में इस बात का हवाला है कि ‘‘योग्य और सराहनीय इतिहासकार वही है जिसका अतीतकालीन घटनाओं का वर्णन न्यायाधीश के समान आवेश,पूर्वाग्रह व पक्षपात से मुक्त है।’’
अंग्रेजी राज की स्थापना के समय से भारतीय इतिहास लेखन का कार्य मुख्य रूप से अंग्रेज इतिहासकारों ने किया। उसने संपूर्ण भारतीय इतिहास को तीन कालखंडों में विभाजित किया जबकि किसी देश के इतिहास को कालखंडों में बांटा नहीं जा सकता। ध्यान देने की बात है कि अंग्रेज इतिहासकारों ने भारतीय इतिहास को जाति, नस्ल एवं धर्म के आधार पर विभाजित किया। प्राचीन भारत को ‘हिन्दू सभ्यता’ तथा मध्यकाल को ‘मुस्लिम सभ्यता’ के रूप में देखा। महत्वपूर्ण ये है कि अंग्रेजी राज को उसने ‘क्रिश्चियन सभ्यता’ की संज्ञा नहीं दी।
भारतीय इतिहास में यह सवाल भी अत्यंत विचारणीय है कि जिस प्राचीन भारतीय संस्कृति को इतिहासकार ‘हिन्दू संस्कृति’ कहते हैं, वह कहां तक उचित है ? सच्चाई तो यह है कि ‘हमारे पुराने साहित्य में ‘‘हिंदू’’ शब्द तो कहीं आता ही नहीं।’ रोमिला थापर का मानना है कि ‘हिन्दू जैसा टर्म इस्लाम के आगमन के पहले के ग्रंथों में भारत के संदर्भ में कहीं नहीं मिलता है। एक खास मजहब के माने में ‘‘हिन्दू’’ शब्द का इस्तेमाल बहुत बाद का है।’
अंग्रेज इतिहासकारों द्वारा भारतीय इतिहास को नस्ल एवं संप्रदाय के रंग में रंगकर प्रस्तुत करने की बात तो समझ में भी आती है, और इसलिए वह क्षम्य भी है। लेकिन आजादी मिलने के बाद भी कुछ पालतू भारतीय इतिहासकारों ने अपने दिवंगत पिता की परंपरा का पालन बखूबी किया। ऐसे संप्रदायवादी इतिहासकारों ने भारतीय इतिहास को उसी ‘फ्रेम’ में लिखने की प्रवृत्ति पर जोर दिया।
आर. सी. मजुमदार जैसे बुजुर्ग इतिहासकार ने यह साबित करना चाहा है कि आर्य भारत के मूल निवासी थे। वे ‘प्राचीन भारत’ में लिखते हैं कि ‘आर्य परिवार के घरों एवं आज के आधुनिक घरों में विशेष कोई अंतर नहीं है। वे भी आज ही की तरह व्यवस्थित जीवन बिता रहे थे।’ सबसे महत्वपूर्ण बात तो यह है कि आर्यों के पास एक ‘मिशन’ था, इसलिए ‘उनकी सभ्यता एवं संस्कृति का अपेक्षाकृत ज्यादा विकास हुआ।’ बात स्पष्ट है कि आर्यों का कोई मिशन था या नहीं, मैं नहीं कह सकता किंतु मजुमदार साहब का एक ‘मिशन’ अवश्य है कि वे आर्यों को भारतीय मूल का घोषित करें।
भारत का इतिहास लिखनेवाले आधुनिक इतिहासकारों का लेखन भी उनके अपने निजी पूर्वाग्रह के कारण विकृति का शिकार हो गया है। अधिकतर इतिहासकारों ने अशोक को महान हिन्दू शासक तथा अत्यंत ही उदार बतलाया है।
इन इतिहासकारों के बयान से ऐसा लगता है मानो अशोक के राज्य में गरीब एवं अमीर का कोई भेदभाव नहीं था। सारी जनता खुशहाल थी जबकि अनेक ऐतिहासिक स्रोत हमें इस बात का प्रमाण देते हैं कि अशोक के राज्य में किसानों के अनेक विद्रोह हुए थे। डा. रामशरण शर्मा ने ‘प्राचीन भारत’ में लिखा है कि ‘किसानों को करों के भारी बोझ का सामना करना पड़ रहा था। विशेष अवसरों पर करों में और अतिरिक्त बढ़ोत्तरी कर दी जाती थी। फलतः किसानों के बीच असंतोष उग्र रूप धारण कर चुका था।’ आगे वे लिखते हैं कि ‘अशोक ने इस बीच अपने घोड़े पर 256 रातें बितायीं जिसका उद्येश्य शायद ग्रामीण इलाकों में प्रशासनिक असफलता तथा किसानों के असंतोष का जायजा लेना था।’
उदारता के मामले में भी अशोक को अद्वितीय घोषित किया है जबकि ऐतिहासिक स्रोतों के आधार पर कहा जा सकता है कि वह निरंकुश प्रवृत्ति का शिकार था। अशोक का संदेश था कि ‘सारे मनुष्य मेरे बच्चे हैं।’ इसके आधार पर रोमिला थापर ने ‘अशोक एंड दि डिक्लाइन ऑफ दि मौर्याज’ में लिखा है कि ‘अशोक के इस कथन से यह साबित होता है कि उसे ‘‘पैतृक निरंकुशतावाद’’ में आस्था थी।’ मौलिक धारणा यह है कि अशोक यह मानने के लिए राजी नहीं था कि वह राजा जनता की मर्जी पर है, अपितु वह ‘दैवी सिद्धांत’ में अपनी आस्था दिखाता था। सवाल है कि जो राजा ‘दैवी सिद्धांत’ में विश्वास करता हो वह भला लोक कल्याणकारी कैसे हो सकता है ?
‘भारत का इतिहास’ में इन्होंने लिखा है कि ‘अशोक ने समारोहों एवं समझौतों पर प्रतिबंध लगा दिया था, और यह संभव है कि इस प्रतिबंध के पीछे कोई राजनीतिक प्रयोजन रहा हो, क्योंकि इस प्रकार के जन-समावेश में विरोध का सूत्रपात हो सकता था।’ उदार हृदय का एक प्रमाण यह भी है कि ‘हल्के अपराध के लिए भी अशोक भारी अर्थदंड देता था’, और ‘यद्यपि अशोक अहिंसा का समर्थक था, पर उसके द्वारा भी मृत्युदंड दिया जाता था।’
औरंगजेब मुसलमान था, इसलिए इतिहासकार उसे हिन्दू विरोधी मानने में तनिक देरी न करते लेकिन ठीक जब उनके सामने अशोक का मसला आता है तो वे मौन धारण कर लेते हैं। हरबंश मुखिया ने ‘कम्युनलिज्म एंड दि राइटिंग ऑफ इंडियन हिस्ट्री’ में इस बात की ओर संकेत दिया है कि ‘अशोक का उल्लेख करते हुए हमें इस बात का ख्याल रखना चाहिए कि उसका अधिकांश जीवन बुद्धिज्म के प्रचार एवं प्रसार में बीता। उसने अपने बाल-बच्चों को विदेशों में बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए भेजा, फिर भी उसे हम एक महान हिन्दू शासक के रूप में देखते हैं।’ औरंगजेब ने तो इस्लाम के प्रचार के लिए ऐसा कोई कदम नहीं उठाया।
अधिकतर इतिहासकार महमूद गजनी को इस्लाम के प्रचारक के रूप में देखते हैं,किंतु यह अतिशयोक्तिपूर्ण माना जायेगा। नेहरु ने ‘हिन्दुस्तान की कहानी’ में लिखा है कि ‘वह मजहबी आदमी होने के बनिस्बत लड़ाका कहीं ज्यादा था, और बहुत से और विजेताओं की तरह उसने अपनी फतहों में मजहब के नाम से फायदा उठाया।’ इसके बाद नेहरु जी लिखते हैं कि ‘उसने हिन्दुस्तान में एक फौज भरती की और उसे एक अपने मशहूर सिपहसालार की मातहत, जिसका नाम तिलक था, और जो एक हिन्दुस्तानी और हिन्दू था, कर दिया। इस फौज का इस्तेमाल उसने खुद अपने मजहबवालों के खिलाफ मध्य एशिया में किया।’
औरंगजेब का उल्लेख इतिहासकारों ने हिन्दू विरोधी तथा मंदिरों के विध्वंसक के रूप में किया है। इनलोगों की धारणा है कि हिन्दू विरोधी होने के कारण इसने मंदिरों का व्यापक पैमाने पर नाश किया। सिर्फ मंदिरों को तोड़ना कतई साबित नहीं करता है कि उसकी नीति हिन्दू विरोधी थी। मंदिरों को तोड़ने के पीछे औरंगजेब का आर्थिक दृष्टिकोण था। जर्जर अर्थव्यवस्था को राहत देने के लिए मंदिरों को लूटना एवं तोड़ना उसकी लाचारी थी।
औरंगजेब मुसलमान था इसलिए उसने मंदिरों को तोड़ा, इसका हमारे पास कोई प्रमाण नहीं है। सच तो यह है कि ‘उसने अनेक हिन्दू दातव्य संस्थान स्थापित किये थे। अगर मंदिरों को तोड़ना एवं लूटना ही हिन्दू विरोधी होने का प्रमाण है तो हिन्दू राजा हर्ष को भी इसी श्रेणी में रखा जाना चाहिए। उसने भी मंदिरों को तोड़ा एवं लूटा। रोमिला थापर ने ‘कम्युनलिज्म एंड द राइटिंग ऑफ इंडियन हिस्ट्री’ में स्पष्ट उल्लेख किया है कि ‘हर्ष ने खासतौर पर एक ऐसे पदाधिकारी को बहाल ही कर रखा था जिसका काम मंदिरों को तोड़ना एवं लूटना था।’ किन्तु इसे हम नजरअंदाज कर देते हैं क्योंकि वह हिन्दू शासक था, और औरंगजेब हिन्दू विरोधी क्योंकि वह मुसलमान था।
प्रकाशन: जनशक्ति, 26 जून 1989।
5 comments:
औरंगजेब मुसलमान था इसलिए उसने मंदिरों को तोड़ा, इसका हमारे पास कोई प्रमाण नहीं है। सच तो यह है कि ‘उसने अनेक हिन्दू दातव्य संस्थान स्थापित किये थे। अगर मंदिरों को तोड़ना एवं लूटना ही हिन्दू विरोधी होने का प्रमाण है तो हिन्दू राजा हर्ष को भी इसी श्रेणी में रखा जाना चाहिए। उसने भी मंदिरों को तोड़ा एवं लूटा। रोमिला थापर ने ‘कम्युनलिज्म एंड द राइटिंग ऑफ इंडियन हिस्ट्री’ में स्पष्ट उल्लेख किया है कि ‘हर्ष ने खासतौर पर एक ऐसे पदाधिकारी को बहाल ही कर रखा था जिसका काम मंदिरों को तोड़ना एवं लूटना था।’ किन्तु इसे हम नजरअंदाज कर देते हैं क्योंकि वह हिन्दू शासक था, और औरंगजेब हिन्दू विरोधी क्योंकि वह मुसलमान था।
कौन सुनेगा किसको सुनाएँ !!
रक्षाबंधन की हार्दिक शुभकानाएं !
समय हो तो अवश्य पढ़ें यानी जब तक जियेंगे यहीं रहेंगे !
http://hamzabaan.blogspot.com/2010/08/blog-post_23.html
हमारा इतिहास, सहयोगी संदर्भ भंडार है, किसी भी प्रस्ताव की स्थापना के लिए हमेशा मददगार. सब कुछ मिल जाता है, इसमें. बस जरूरत खंगालने की होती है, खूब खंगाला है आपने, बधाई.
मुझे तो लगता है भारत मैं धर्म निरपेक्षता की अवधारणा औरंगजैब से ही आई है.....उसने जो हिंदु मंदिरों को तोङ तोङ कर औऱ हिंदू जनता को मार मार कर भारत की अर्थव्यवस्था को..... सुधारने का ही तरीका था ....अद्वितिय....इतिहास को समझने की आपकी दृष्टि सचमुच अद्वितीय है....औऱ गुरू तेग बहादुर को जो उसने मार डाला वो शायद किसी सिरफिरे ने इतिहास मैं लिखा होगा....और गुरू गोविंद सिंह जी के दोनों पुत्रों को दीवार मैं चुनवा दिया ....न न ये तो हुआ ही नहीं वो तो दीवार पर खेल रहे होंगे और कूद गये होंगे न.....इतिहास को देखने की आपकी दृष्टि विलक्षण है.....मोहम्मद बिन कासिम से लेकर बाबर तक के शांति दूत यहां आये जिनके व्यकित्व से प्रभावित होकर भारत की जनता मुसलमान बन गई ...उन्होने कोई मंदिर भी नहीं तोङा ....न किसी को जबरन मुसलमान बनाया......राईट
मिहिरभोज जी , जो मार काट थी वो सत्ता की मांग थी .इतिहास में पिता पुत्र के बीच हिंसक घटनाएं अज्ञात नहीं हैं. इन चीजों का महजब से क्या वास्ता ?महजबी शासकों ने धर्मं का सत्ता के लिए इस्तेमाल किया
nice
Post a Comment