Sunday, September 5, 2010

ब्राह्मणी भाषा से बचें शेष जी !

 मेरी टिप्पणी पर दो टिप्पणियाँ  मोहल्ला  लाइव ब्लॉग पर आयीं  जिन्हें मैं हू -ब -हू  प्रस्तुत कर रहा हूँ .इन पर मेरी जवाबी टिप्पणी भी यहाँ प्रस्तुत है .

अरविंद शेष said: अध्ययन के स्तर पर धनी और विचार के स्तर पर भयानक खोखलेपन का एक बेहतरीन उदाहरण है राजू रंजन प्रसाद की प्रतिक्रिया।
राजू रंजन कहते हैं-
“परिवार एक संस्था है, समझौते पर आधारित संस्था। समझौते के लिए जरूरी है कि हम अपनी पहचान को विलोपित करें। पति-पत्नी दोनों के लिए ऐसा करना जरूरी है।”

सवाल है कि किसकी पहचान विलोपित होती है। राजू रंजन का कहना है कि पति-पत्नी दोनों के लिए ऐसा करना जरूरी है। लेकिन पितृसत्ता की बुनियाद पर खड़ी विवाह-व्यवस्था और परिवार नाम की संस्था में आपने अब तक कितने पुरुषों यानी पतियों की पहचान विलोपित होते देखी है? विलोपित तो पत्नी यानी स्त्री की ही पहचान को होना पड़ता है।

आपका कहना है कि “पहचान” से अकादमिक सफलताएं तो हासिल हो सकती हैं, परिवार चलाने में दिक्कत आती है।

बहुत खूब। अब तक खुद से शुरू हुए अपने “परिवार” में अकादमिक सफलताएं तो छोड़ दीजिए, अपने घर तक में पत्नी, बेटे, बेटी पर अपनी पहचान थोपते हुए किस मर्द को परिवार चलाने में दिक्कत आई है। परंपरागत तरीके से तो परिवार बड़े “सुख-सुकून” से चल रहा है? सुना है कि रास्ते “समृद्ध” भी होता है।
आगे राजू रंजन जी कहते हैं-
“अप्रिय किंतु सत्य है कि ‘फेमिनिस्ट’ या ऐसे किसी भी ‘एप्रोच’ के साथ शादी के ‘बंधन’ को निबाह पाना संभव नहीं।”

एक प्रश्न- क्या आप यह मानते हैं कि “फेमिनिस्ट” या ऐसे किसी अप्रोच से मुक्त हमारी समाज व्यवस्था में अब तक शादी का “बंधन” बड़ी कामयाबी से निबाहा जा रहा है? अगर हां, तो “फेमिनिस्ट” या ऐसे किसी अप्रोच से मुक्त वह कौन-सा अप्रोच है, जिसके तहत यह “कामयाबी” जारी है? और अगर इसका जवाब यह है कि वह अप्रोच “पैट्रियार्की” या पितृसत्तात्मक व्यवस्था है, तो जब “पितृसत्ता” पर आधारित व्यवस्था शादी के “बंधन” को “कामयाब” बनाए रख सकता है, तो उसके मुकाबले “फेमिनिज्म” क्यों नहीं? (आप बड़े अध्ययनशाली हैं। उत्तर-पूर्व के राज्यों या कई जनजातीय समाजों का अध्ययनों का विस्तार होगा आपके पास) क्या सिर्फ इसलिए कि पितृसत्तात्मक अहं के लिए स्त्रीवाद एक समांतर सत्ता है, जो आखिरकार उसकी सत्ता को खा जाएगा? जिस तरह पितृसत्ता ने स्त्री को अब तक गुलाम बनाए रखा है, क्या उसी भावी गुलामी का शिकार हो जाने का डर है? अगर आधा समाज पितृसत्ता की गुलामी भोग ही रहा है, मातृसत्ता में भी तो अनुपात यही रहेगा न! फिर “फेमिनिस्ट” या “ऐसे किसी अप्रोच” से डर कैसा? अब तक हमने पितृसत्तात्मक अप्रोच पर कायम ब्राह्मणवादी समाज व्यवस्था का हश्र तो देख ही लिया है कि कैसे यह समाज की बहुसंख्य आबादी को सिर्फ गुलाम बनाए रखने की कीमत पर टिकी हुई है। फिर दूसरे प्रयोग की उम्मीद और उसके सपने से डर क्यों?

और आप तो इससे बड़े अप्रोच की दरकार बताते हैं- मनुष्यता की। आपने सही कहा है कि दोनों को मनुष्यता के धरातल पर आना होगा। मगर पितृसत्ता की गुलाम मौजूदा परिवार व्यवस्था में तो यह संभव नहीं लगता। एक सिर्फ शासक है, जो आखिरकार सांमत है। और दूसरा शासित है, जो आखिरकार शोषित है- मैजोकिज्म का शिकार…।

यह कह कर आप अपनी पूरी ग्रंथि और कम से कम इस मामले में परिणामों का अंदाजा नहीं पाने की अपनी “गुणवत्ता” को खोल कर रख देते हैं कि “जब तक ‘ब्राह्मण लड़की’ की शादी ‘दलित लड़के’ से होती रहेगी, ऐसी घटनाओं की असीम संभावना रहेगी।

राजू रंजन जी, अब तक पता नहीं कितनी “दलित लड़कियां” “ब्राह्मण लड़कों” के जीवन को तार चुकी हैं। ऐसी घटनाओं के उदाहरण खोजने से भी शायद नहीं मिलें कि किसी “दलित लड़की” के “अत्याचारों” से त्रस्त होकर किसी “ब्राह्मण” लड़के ने आत्महत्या कर ली हो। आखिरकार सवाल यहां भी पुरुष सत्ता का ही है, स्त्रियां सिर्फ भुक्तभोगी हैं।

आपका निजी अनुभव बिल्कुल दुरुस्त होगा कि जाति की सीमा लांघ कर भी जो शादी कर रहे हैं, अपने दैनिक जीवन के अन्य व्यापारों में जातिगत संस्कारों से मुक्त नहीं हो पाते। ऐसा क्यों है राजू रंजन जी? और यही नियति है तो आपकी बताई यह दरकार कैसे पूरी होगी कि कोई मनुष्य बने, आदमी बने? ऐसी अशुभ अनहोनी के कारण दलित और ब्राह्मण की छवि को ढोने की त्रासदी का खात्मा कैसे होगा?

आपकी टिप्पणी में यहां पहुंच कर तो आपके अध्ययन पर रीझा हुआ मेरा दिमाग झल्ला गया कि “पितृसत्ता के पैरोकार सिर्फ बेचारे पुरुष ही नहीं हैं। जाने-अनजाने माताएं एवं बहनें भी हैं। मेरी मां बचपन में मुझे बहनों से बढ़िया खाना खिलाती रही क्योंकि मैं बेटा था। मेरी मां कोई ‘पुरुष’ नहीं थी।”

अब तक कई ऐसे कूढ़मगज मिल चुके हैं जो दहेज हत्याओं का उदाहरण देते हुए स्त्रियों का सबसे बड़ा दुश्मन स्त्रियों को ही बताते हैं। कहते हैं कि घर में दहेज की मांग स्त्रियां ही तय करती हैं, लिस्ट वही बनाती हैं, मांग नहीं पूरी होने पर या कमी रह जाने पर वह अपने घर आई बहू या ननद को प्रताड़ित करने या किरासन तेल छिड़क कर जला देने का काम वही करती हैं।

आपके हिसाब से तो अपने बेटे को बढ़िया खाना खिलाने वाली, अपनी बेटियों को भूखा रखने वाली, बहुओं-ननदों को जलाने वाली स्त्रियां पितृसत्ता की पैरोकार हैं!

वे पितृसत्ता की हथियार हैं, या औजार हैं- कभी इस पर भी विचार किया है आपने? वे कौन-से कारण हैं जिसके चलते एक स्त्री अपनी अस्मिता के बारे में सोच भी नहीं पाती और पुरुष अस्मिता को पालने-पोसने और उसे मजबूत करने में लगी रहती है? जरा उसी स्थिति के बारे में सोचिएगा कि आपके आसपास आपको बढ़िया खाना खाते देखती आपकी बहनों के भीतर विद्रोह पैदा होने की कितनी गुंजाइशें इस पितृसत्ता ने छोड़ी हैं। इसके उलट अपने भाइयों को बढ़िया खाना खाते देख, अच्छा कपड़ा पहनते देख, अपने मुकाबले सभी मामलों में अच्छी सुविधाएं मिलते देख, अपने घर में दादा-दादी, पिता-मां, चाचा-चाची, सखी-सहेली सबसे पुरुष महिमा सुनती हुई वह पुरुषवाद को ही अपने मनोविज्ञान में उतार लेती है और शरीर को छोड़ कर उसका सब कुछ पुरुष ही रहता है। हां, उस पुरुषवाद को निबाहने के तरीके पुरुषों से अलग होते हैं। लेकिन वह होता है आखिरकार पितृसत्ता का ही निर्वाह, पैरोकारी नहीं।

आपने सिर्फ एक बात सही (मैं अपने बुद्धि विकास के क्रम में जितना समझ पाया हूं) कही है कि लिखने वाले लोग अगर वैसा ही करने लगें, तो समस्या ही नहीं रह जाएगी।
बस यही बात अपने रूप में उतर जाए, फिर देखिए कि आपके सवाल कैसे खुद ही अपना जवाब ढूंढ़ लेते हैं।
Rajeev Kunwar said.. परिवार एक संस्था है, समझौते पर आधारित संस्था – राजू जी के विचार हैं सर्वथा मौलिक और 21 वीं सदी के। इन विचारों में वे मानववादी दिखाई देते हैं। राजनीतिक तौर पर मार्क्सवादी और परिवार के मामले में मानववादी। यह अंतर्विरोध है क्या ? अगर है तो क्यों ? मैं उनकी बात नहीं कर रहा जो मान रहे हैं कि अर्चना की जिंदगी से सीख लें कि सवर्ण लड़कियों को दलित लड़कों से विवाह करने का यही अंजाम होता है। लेकिन राजनीतिक तौर पर जो मार्क्सवादी हैं वह भी परिवार के मामले में ऐसा ही कहते पाए जाएं कि अगर पहचान बनाए रखना चाहोगे तो अंजाम यही होगा, तो एक बार सोचना होता है। मार्क्सवादी सिद्धांत के आधार पर अगर राजू जी को इस लेख पर टिप्पणी करनी होती तो उन्हें एंगल्स की याद आती, व्यक्तिगत संपत्ति याद आता, परिवार याद आता और वे राज्य के चरित्र पर विचार कर रहे होते। पर वे(मार्क्स और एंगल्स) तो पुराने पर गए हैं। अब तो 21वीं सदी में नए सिद्धांत की जरूरत है। सो राजू जी ने मानववाद का सहारा लिया। यह मानववाद आया ही था मार्क्सवाद के खिलाफ। वह भी 20 वीं सदी के आरंभ में। आज 21 वीं सदी में कुछ अलग आधार लेना चाहिए था। उम्मीद है, अगले लेख में कुछ नया आधार आए 21वीं सदी वाला बिल्कुल नया और अद्भुत।
 
राजू रंजन प्रसाद का स्पष्टीकरण 
शेष जी,
आप इतने दिनों से मेरे ‘अध्ययन’ पर अपनी आंखें मूंदकर जो रीझे हुए थे वह क्या था ? क्या अबतक आपको मेरे विचारों से वास्ता नहीं पड़ा था ? या अपना पक्ष मजबूत करने के लिए मैं मान लूं कि आप मेरे ‘विचारों’ पर ही ‘फिदा’ थे। आप अपना ही मूल्यांकन कीजिए शेष जी। अपनी समझ-अपनी खोपड़ी का। पूछिए अपने आप से कि इतने सालों के कठिन और श्रमसाध्य अध्ययन के उपरांत आपने एक व्यक्ति की जो छवि गढ़ रखी थी वह अचानक एक टिप्पणी की वजह से आपको मेटनी पड़ रही है। बेहतर है कि आप मेरे ऊपर झल्लाने की बजाय अपने ऊपर झल्लाइए कि ये छोटी-सी बात कि ‘मैं वैचारिक रूप से खोखला हूं’, आपकी इस औंधी खोंपड़ी में पहले क्यों नहीं आई! इसलिए, बुरा न मानें तो मेरी एक सलाह है कि चीजों को ‘आलोचनात्मक विवेक’ के साथ देखने की कोशिश कीजिए। वरना जीवन भर आपको झल्लाना पड़ेगा-वह भी दूसरों की गलती के लिए। अर्चना की मौत (उसे याद करते मुझे दुख होता है) शायद इसीलिए हुई कि उसने भी यह विवेक विकसित नहीं किया था, आपही की तरह केवल रीझना जाना था। ऐसी ‘उपलब्धियों’ का अंत तो आप अपनी आंखों से देख चुके न शेष जी ? ऐसे में, इतनी दूर बैठा मैं तो आपके दीर्धायु होने की महज शुभकामना ही भेज सकता हूं।

सारी गलती उसी ‘विवेक’ के न होने की वजह से पैदा हुई है। मेरे ‘ब्राह्मण लड़की’ और दलित लड़का’ का मतलब वह नहीं जो आपके कुत्सित दिमाग ने लगाया। इन वाक्यांशों के सहारे मैं यह कह रहा था कि जबतक आपकी पहचान ‘ब्राह्मण’ और ‘दलित’ (वैसे मैं कहूं कि दलित एक ‘मिथ्या’ धारणा अथवा चेतना है, वास्तविकता नहीं है। वास्तविकता है जाति-व्यवस्था।) रहेगी, ऐसे तनावों को समाप्त नहीं किया जा सकता। लेकिन शेष जी के अविकसित दिमाग ने उसे कैसे पकड़ा, उसका नमूना आप यहां देखें-‘अब तक पता नहीं कितनी ‘‘दलित लड़कियां’’ ‘‘ब्राह्मण लड़कों’’ के जीवन को ‘‘तार’’ (जोर मेरा) चुकी हैं। शेष जी, क्या आप बता सकते हैं कि ये ‘तारने’ और ‘उद्धार’ करनेवाली भाषा किस दलित या स्त्री विमर्श की भाषा है। दूसरों को गाली देने से बेहतर होगा कि पहले आप स्वयं को ‘ब्राह्मणवादी संस्कारों’ से मुक्त कर लें। ऐसी भाषा आप जैसे ‘प्रखर’ दलित चिंतक के मुंह से अच्छी नहीं लगती!

भाई राजीव को लगा कि मेरे द्वारा आदमी बनने की बात कहना मार्क्सवाद का विरोध करना और ‘मानववाद’ से काम चलाना है। उन्हें दुख है कि मैंने बात मार्क्सवादी लहजे में नहीं कही। तो भाई, आपलोगों से इतनी छोटी बातें तो पच ही नहीं पा रही, बड़ी बात क्या कहूं। मेरे द्वारा परिवार को संस्था कहे जाने पर आपत्ति हो गई। मार्क्स को क्या कहेंगे, उनके लिए पूंजीवादी व्यवस्था की शादियां वेश्यावृत्ति हैं। तब परिवार ‘चकलाघर’ होगा न!

1 comment:

Dr Om Prakash Pandey said...

We need to judge all 'isms' in the light of our post modern requirements and Marxism cannot be an exception to it . What's wrong if Raju freely says what he feels ?