Friday, September 3, 2010

ये गर्मी, ये तल्खी बची रहे

मोहल्ला लाइव पर मृणाल वल्लरी का लेख जब लगेगा थक गयी, आराम का रास्ता चुन लूंगी पर एक तात्कालिक टिपण्णी 

मृणाल वल्लरी
मृणाल जी, आपके इस विचारोत्तेजक लेख को मुझे दोबारा पढ़ने का लाभ मिला। कुछ साल पहले मैंने अपनी लघु पत्रिका लोक दायरा  में इसे छापना चाहा था। किंतु मैं इसे छाप नहीं सका। वजय यह नहीं थी कि मैं पितृसत्ता का पैरोकार था, तबतक पत्रिका ही बंद हो गई। इस बात का मुझे सचमुच ही बड़ा अफसोस रहा।

परिवार एक संस्था है, समझौते पर आधारित संस्था। समझौते के लिए जरूरी है कि हम अपनी पहचान को विलोपित करें। पति-पत्नी दोनों के लिए ऐसा करना जरूरी है। ‘पहचान’ से अकादमिक सफलताएं तो हासिल हो सकती हैं, परिवार को चलाने में दिक्कतें आती हैं। अप्रिय किंतु सत्य है कि ‘फेमिनिस्ट’ या ऐसे किसी भी ‘एप्रोच’ के साथ शादी के ‘बंधन’ को निबाह पाना संभव नहीं। इससे बड़े एप्रोच की दरकार है-मनुष्यता की। दोनों को मनुष्यता के धरातल पर आना होगा। एकमात्र यही बंधन है जो शादी के बंधन को बीच में खुलने से बचा सकता है। 

जबतक ‘ब्राह्मण लड़की’ की शादी ‘दलित लड़के’ से होती रहेगी, ऐसी घटनाओं की असीम संभावना रहेगी। निजी अनुभव के आधार पर मैं कह सकता हूं कि जाति की सीमा लांघकर भी जो शादी कर रहे हैं, अपने दैनिक जीवन के अन्य व्यापारों में जातिगत संस्कारों से मुक्त नहीं हो पाते। जबतक हम आदमी नहीं बनते, दलित और ब्राह्मण की छवि ढोते रहेंगे, ऐसी अशुभ अनहोनी होती रहेगी।

पितृसत्ता के पैरोकार सिर्फ बेचारे पुरुष ही नहीं हैं। जाने-अनजाने माताएं एवं बहनें भी हैं। मेरी मां बचपन में मुझे बहनों से बढ़िया खाना खिलाती रही क्योंकि मैं बेटा था। मेरी मां कोई ‘पुरुष’ नहीं थी। यह लड़ाई पितृसत्ता के खिलाफ है। इसमें पुरुष और महिला दोनों साथ हैं। आपके लेख पर कई टिप्पणियां हैं। इनमें अधिकतर तो बेचारे पुरुष ही हैं-स्त्रियों की आजादी, पहचान आदि की बात करते हुए। फिर ये पौरुषवाले पुरुष कहां से आ जाते हैं। मेरा कहना है कि ऐसे ‘पुरुषों’ के कहे-लिखे का भरोसा नहीं करने का। लिखनेवाले लोग अगर वैसा ही करने लगे तो समस्या रह ही नहीं जायेगी। क्यों ? वैसे इस गर्मी में इसे पढ़कर पसीने छूट गये। ये गर्मी, ये तल्खी बची रहे-यही मेरी कामना है! 

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