Sunday, February 6, 2011

नया पाठ्यक्रम , पुरानी मानसिकता



कहना न होगा कि राष्ट्रीय पाठ्यचर्या रुपरेखा (२००५) इस बात की प्रस्थापना करती है कि बच्चों के स्कूली जीवन को बाहर के जीवन से जोड़ा जाना चाहिए. यह प्रस्थापना किताबी ज्ञान की उस पारंपरिक विरासत के विपरीत है जिसके प्रभाववश हमारी शिक्षा-व्यवस्था आज तक स्कूल और घर के बीच ‘मर्यादा’ का अंतराल में विश्वास करती रही है. इस नई पाठ्यचर्या पर आधारित पाठ्यक्रम और पाठ्य-पुसतकें उपरोक्त बुनियादी विचार पर अमल करने का प्रयास हैं. इस प्रयास में हर विषय को एक मजबूत दीवार से घेर देने और जानकारी को रटा देने की प्रवृत्ति का विरोध शामिल है. ऐसे प्रयास राष्ट्रीय शिक्षा नीति (१९८६) में वर्णित बाल-केंद्रित शिक्षा-व्यवस्था स्थापित करने की दिशा में ऐतिहासिक महत्त्व के साबित होंगे.

पुराने पाठ्यक्रम के बच्चे इतिहास विषय के प्रति अरुचि प्रदर्शित करते कहा करते थे-‘इतिहास-भूगोल है बेवफा, सुबह पढ़ो शाम को सफा’. तब इतिहास पढ़ने-पढ़ाने का मतलब तिथि और घटनाओं का रट्टा मारना होता. थोड़ी भी चूक होने पर शिक्षक या अभिभावक की कोफ़्त का शिकार होना पड़ता और मार खानी होती. अब इतिहास की धारणा बदली है. हालाँकि नेहरु काफी पहले ही अपनी दस-वर्षीया बेटी इंदु (तब इंदिरा नहीं बनी थी) को लिखे पत्रों में स्पष्ट कर चुके थे कि इतिहास का मतलब चंद तारीखों से नहीं, बल्कि समाज में परिवर्तन लानेवाली ताकतों से है. साथ यह भी कि इन्हीं ताकतों की वजह से ‘विशेष ऐतिहासिक परिस्थितियों में’ एक सामान्य आदमी भी नायक हो जाता है. वर्ग ८ के इतिहास के पाठ्यक्रम के माध्यम से बच्चों में इन्हीं विशेष ऐतिहासिक परिस्थितियों की समझ पैदा करने की कोशिश है. बच्चों में किसी भी घटना के बारे में ‘क्यों’ और ‘कैसे’ जैसे महत्वपूर्ण सवाल करने की समझ और जिज्ञासा पैदा करने का यत्न है. ‘क्यों’ और ‘कैसे’ जैसे सवाल पहली नजर में अति सामान्य प्रतीत हो सकते हैं लेकिन गंभीरता से विचार करने पर पता चलता है कि यह दरअसल इतिहास का ‘कार्य-कारणवाद’ है. मजे की बात है कि यह सब वर्ग ८ के बच्चों को बगैर किसी दार्शनिक सूत्र का सहारा लिए कथा एवं संवाद शैली के माध्यम से खेल-खेल में बताया जा रहा है.

इतिहास एक वैश्विक परिघटना है. भारत के अतीत की कहानी दुनिया के लंबे इतिहास से जुड़ी हुई है. इस बात को समझे बगैर भारत के इतिहास (अतीत) में आये परिवर्तनों को समझना आसान नहीं रह जाता. यह बात तब और भी महत्वपूर्ण हो जाती है जब आज वैश्वीकरण के इस दौर में तमाम अर्थव्यवस्थाएं और समाज दिनोंदिन गहरे तौर पर एक-दूसरे से जुड़ते जा रहे हैं. इतिहास को हमेशा भौगोलिक सीमाओं में बंद करके नहीं देखा जा सकता. उदहारण के तौर पर, हम भारत में मुग़ल साम्राज्य के पतन को ईस्ट इंडिया कंपनी के आगमन (विशेषकर ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी) और दोनों ताकतों के बीच के अंतर्विरोध को जाने बगैर नहीं समझ सकते. ठीक इसी तरह फ़्रांस की राज्यक्रांति को अमेरिकी स्वतंत्रता संघर्ष के बगैर नहीं समझा जा सकता. और इन तमाम यूरोपीय घटनाक्रमों को को जाने-समझे बगैर भारत में राष्ट्रवाद के उद्भव एवं विकास को जानने-समझने का दावा कितना भ्रामक और निराधार हो सकता है-आसानी से समझा जा सकता है. इसलिए फ्रांसीसी इतिहासकार फर्नांड ब्रौदेल के शब्दों में हम यह भी कह सकते हैं कि ‘विश्व के बिना राष्ट्र की बात नहीं हो सकती’. अलग से कहने की जरूरत शायद शेष नहीं कि कक्षा ९ और १० की इतिहास की पाठ्य-पुस्तकों का मुख्य जोर यही समझाने पर है.

ऐसा भी नहीं कहा जा सकता कि आज से पहले के पाठ्यक्रमों में विश्व इतिहास का अध्ययन अनुपस्थित/उपेक्षित रहा है. बल्कि यह कहना शायद ज्यादा उचित होगा कि नये पाठ्यक्रम में विश्व इतिहास की ‘प्रस्तुति’ एक बदले हुए अंदाज में हुई है. अब तक आधुनिक विश्व का इतिहास अक्सर पश्चिमी दुनिया के इतिहास पर ‘आश्रित’ रहा है. मानो सारे परिवर्तन और सारी तरक्की सिर्फ़ पश्चिम के देशों में ही होती रही हो, बाकी देशों के इतिहास एक समय के बाद ठहरकर रह गये हों. गतिहीन और जड़ हो गये हों. इस इतिहास में पश्चिम के लोग उद्यमशील, रचनात्मक, वैज्ञानिक मेधायुक्त, मेहनती, कुशल और बदलाव के लिए तत्पर दिखाई पड़ते हैं. दूसरी तरफ पूर्वी समाज-या अफ्रीका और दक्षिणी अमेरिका के लोगों को परम्परानिष्ठ, आलसी, अंधविश्वासी, और बदलावों से कन्नी काटनेवाला दिखाया जाता है. उपरोक्त प्रथम कोटि का इतिहास उपनिवेशवाद के दौर में प्रस्तुत किया गया था, अपने निहित स्वार्थ के तहत. भारत समेत एशियाई देशों की ऐसी अपरिवर्तनीय छवि प्रस्तुत किये बगैर यूरोप अपनी ‘नस्ली श्रेष्ठता’ घोषित नहीं कर सकता था. इसी श्रेष्ठता-बोध से यूरोप की गोरी जातियों को एशियाई देशों के लोगों को सभ्य बनाने का ‘नैतिक भार’ मिला था. नये पाठ्यक्रम ने जो विश्व इतिहास की प्रस्तुति की है उससे यूरोप की श्रेष्ठता का मिथ्या आवरण हट चुका है. अब बच्चे समझ सकते हैं कि भारत का इतिहास मात्र राजे-रजवाड़े, नटों-सपेरों का ही नहीं रहा है, बल्कि वैज्ञानिक प्रगति का भी उसमें अहम हिस्सा है.

हालाँकि कहा जा सकता है कि पाठ्यक्रम के निर्माण में कुछ अति उत्साह का भी प्रदर्शन हो गया है जिसे वर्तमान शैक्षणिक परिवेश में व्यावहारिक नहीं कहा जा सकता. विहित हो कि वर्ग ९-१० के छात्रों के पाठ्यक्रम में साहित्य, क्रिकेट, पोशाक आदि विषयों का इतिहास भी शामिल किया गया है. पाठ्यक्रम निर्माता शायद इस बात से अनभिज्ञ हैं कि इसे लागू करनेवाले शिक्षक स्वयं पठन-पाठन’ के ‘मल्टी डिसिप्लिनरी एप्रोच’ के कितने कायल हैं. कहना न होगा कि इन शिक्षकों की शिक्षा-दीक्षा की जो परिपाटी रही है, उसमें हर विषय का अपना एक जबरदस्त घेरा है. सभी विषय अपनी-अपनी दीवारों से घिरे हैं. कुछ दिनों पहले तक या कहें कि पुराने पाठ्यक्रम के लिहाज से इतिहास विषय को पढ़ाते हुए अपेक्षा होती थी कि शिक्षक अथवा छात्र साहित्य आदि की चर्चा न करे. ऐसा करना विषय की मर्यादा का उल्लंघन अथवा कहें कि साफ विषयान्तर माना जाता था. कहना जरूरी नहीं कि यह शिक्षक एवं छात्र दोनों ही की विषयगत कमजोरी समझी जाती थी.

अब जबकि नये पाठ्यक्रम के अनुसार पढ़ाना है, उस शिक्षक से जो ‘विषय की शुचिता’ का कायल और पैरोकार रहा है, उम्मीद की जाती है कि वे क्रिकेट से लेकर फिल्म तक को अपने अध्ययन का विषय बनायें. ये वही शिक्षक हैं जो ‘खेलोगे-कूदोगे होगे खराब, पढ़ोगे-लिखोगे बनोगे नवाब’ जैसी ‘सूक्तियों’ का ‘मन्त्र-जाप’ करते रहे हैं. क्रिकेट और फिल्म की बात करने मात्र से छात्रों को ‘भ्रष्ट’ का खि़ताब देनेवाले शिक्षक इन चीजों की पढ़ाई करवाना किसी बड़े ‘अनर्थ’ से कम है क्या? तात्पर्य यह कि सरकार को पहले शिक्षण-प्रशिक्षण के जरिये शिक्षकों में नये पाठ्यक्रम के अनुकूल मानसिकता पैदा करने की चेष्टा करनी चाहिए थी. लेकिन दुर्भाग्यवश भारत की शिक्षा-व्यवस्था औपनिवेशिक काल से ही ‘अभिनव प्रयोग’ की शाला रही है. इतिहास के पाठ्यक्रम में पोशाक (ड्रेस) के इतिहास को शामिल करनेवाले इतिहासकारों ने यह सोचने की जहमत ही नहीं उठायी कि अपने मुल्क में इसपर अद्यतन शोध की क्या स्थिति है. जिस तरह संविधान निर्माताओं ने विश्व के तमाम दूसरे सविधनों की अच्छी बातों का ‘अजायबघर’ रच डाला. यह ध्यान ही न रहा कि भारतीय जनमानस उसके लिए सामाजिक-सांस्कृतिक रूप से तैयार है भी या नहीं. यह नया पाठ्यक्रम भी कुछ मामलों में उसी की स्मृति ताजा कराता है.

4 comments:

ZEAL said...

शिक्षकों की तरफ से प्रयास होना चाहिए की पाठ्यक्रम कों रोचक बनाया जाए तथा पद्धाने की शैली विद्यार्थियों के मन में जिज्ञासा पैदा करे , तभी कुछ संभव है अन्यथा इतिहास भूगोल में विद्यार्थियों की रूचि घटती ही जा रही है।

ZEAL said...

.

आज का विद्यार्थी job oriented studies में विश्वास रखता है । इसलिए selective studies पर उसका विशेष ध्यान रहता है । विज्ञान विषयों द्वारा नौकरी की संभावनाएं ज्यादा होने से विद्यार्थियों का ध्यान उधर ही केन्द्रित रहता है ।

इसलिए इतिहास , भूगोल आदि विषयों की तरफ विद्यार्थियों का रुझान हो इस विषय पर सार्थक चिंतन बहुत जरूरी है

.

Dr Om Prakash Pandey said...

'nehru ke karan hi sara ..... hai .'
waise itihaas ki unki ek samajh thee.
aaj wo hote to baat kuchh aur hoti .

Ashok Singh Raghuvanshi said...

सर जी राष्ट्रीय पाठ्यचर्या रुपरेखा २००५ का मूल पाठ हिंदी में कहाँ से प्राप्त होगा.
जानकारी दे सकें तो ashoksr777@gmail.com पर e-mail करें. आभारी रहूँगा.........