४ जून २०११ को दिल्ली के रामलीला मैदान में योग-गुरु रामदेव जी तथा उनके सहयोगियों के द्वारा आहुत सत्याग्रह का प्रत्यक्षदर्शी होने का सौभाग्य या दुर्भाग्य मुझे प्राप्त हुआ. रामदेव जी का संकल्प कि ‘देश से भ्रष्टाचार को समाप्त कर देना है’, ‘इसमें उनकी जान भी चली जाये तो उन्हें कोई गम नहीं’-मुझे रामदेव जी के इस अबोध या नासमझ कथन से खेद होता है. यह इसलिए कि रामदेव जी की इस उक्ति में अर्थव्यवस्था की सही जानकारी का अभाव झलकता है. पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में ‘उत्पादन के साधनों पर व्यक्ति विशेष का स्वामित्व होता है’, ‘कम से कम लोगों के हाथों में अधिक से अधिक धन इकठ्ठा होता है’ तथा रुपया भगवान से भी बड़ा हो जाता है. बेकारी, भूखमरी, गरीबी, भ्रष्टाचार, अत्याचार आदि सभी इस पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के अंतर्विरोध हैं. जबतक यह अर्थव्यवस्था अस्तित्व में होगी तबतक उपर्युक्त सारे लक्षण मौजूद रहेंगे. खुद रामदेव चिकित्साशास्त्र पर अपनी टिप्पणियों में यह कहते पाए जाते हैं कि महज लक्षणों का निदान रोग का उपचार नहीं है बल्कि अनावश्यक दवाओं के असर से और कई दूसरे रोग भी हो जाते हैं. रामदेव जी, काश आप भ्रष्टाचार के मूल में पूंजीवाद जैसे रोग को ‘डायग्नोज’ कर पाते तो शायद स्वयं तथा अपने अनुयायियों को भी भ्रम से बचा पाते. भ्रष्टाचार तो उस पौधे की पत्तियां है और पत्तियों को नष्ट करने से पौधे समाप्त नहीं होते. दूसरी ओर, आपके सारे क्रियाकलाप पूंजीवादी संस्कृति के पक्ष में हैं क्योंकि धन और धर्म का गंठजोड ही योग है जिसे लेकर आप जनता को गुमराह कर रहे हैं. पता नहीं आप अर्थव्यवस्था की सही समझ के अभाव में ऐसा कर रहे हैं या कि इसका कोई राजनितिक निहितार्थ है क्योंकि ‘रातों रात आपने भगवा वस्त्र बदलकर सलवार-सूट और दुपट्टा पहन लिया’-जाने क्या मज़बूरी थी ? एक प्रसिद्ध अर्थशास्त्री, प्रूधों ने ‘व्यक्तिगत संपत्ति’ को चोरी कहा था. अतः उस लिहाज से पैसे की संस्कृति ‘करप्शन’ है. ये दोनों ही परिघटनाएं मानव जीवन के विकास के क्रम में जुडी हैं और इनमें उत्तरोत्तर प्रगति होती रही है. मुझे याद है- जब मैं कॉलेज का विद्यार्थी हुआ करता था तो पटने में आयकर चौराहे के पास एक बड़ा-सा होर्डिंग लगा था जिसपर करप्शन के सम्बन्ध में अंग्रेजी में एक सूत्र लिखा था जिसका हिंदी तर्जुमा है कि ‘भ्रष्टाचार कोई नई चीज नहीं है और यह सार्वभौम है’. मेरे तार्किक मन ने इसे इस रूप में लिया कि सार्वभौम और सर्वव्यापी तो सिर्फ भगवान हैं-तो फिर उस वक्त से यह जोड़ लिया कि ‘भगवान और भ्रष्टाचार सार्वभौम और सर्वव्यापी हैं’. उसी दरम्यान मुझे प्राचीन भारतीय अर्थशास्त्री कौटिल्य का यह सूत्र भी मिला कि ‘यदि किसी की जिह्वा पर मधु की दो बूंद रख दी जाएँ तो यह संभव नहीं कि वह व्यक्ति उसके रस का आनंद न लेगा.’ इन तथ्यों से मेरा अभिप्राय भ्रष्टाचार का पक्षपोषण करना नहीं है बल्कि उस ओर इशारा करना है कि यह तो पूंजीवादी संस्कृति का मात्र ‘बाई प्रोडक्ट’ है. असल हथौड़ा तो उस संस्कृति के ऊपर पड़ना चाहिए जिसका कि अबतक किसी ने प्रयास नहीं किया है बल्कि इस नाम पर सरकार गिराने, सत्ता पलट करने तथा सत्ता हथियाने का काम अवश्य हुआ है.
इस सन्दर्भ में भारत के राजनीतिक इतिहास (स्वातंत्र्योत्तर) पर थोड़ी चर्चा अपरिहार्य है. सन १९७४-७५ में जयप्रकाश नारायण ने ‘सम्पूर्ण क्रांति’ का आह्वान कर देश के मध्यवर्ग के बीच नई आशाओं का संचार किया तथा मुख्य रूप से छात्रों को अगुवा बनाकर केन्द्र में स्थापित कॉंग्रेस शासन का विरोध किया था. परिणाम के रूप में कोई विशेष परिवर्तन नहीं हुआ, सिर्फ सत्ता का हस्तांतरण हुआ. उलटे, उस वक्त जनता के बीच जो घोर हताशा, निराशा और आक्रोश पल रहा था, जिसकी परिणति व्यवस्था परिवर्तन में हो सकता था, किन्तु जयप्रकाश नारायण ने उस पलते-बढ़ते आक्रोश की हवा निकाल दी और भारत में कुछ भी न बदला. चेहरे अवश्य बदले, किन्तु गरीबी, भूखमरी, बेकारी एवं भ्रष्टाचार पूर्व की भांति फलता-फूलता रहा.
नब्बे के दशक में विश्वनाथ सिंह ने पुनः भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाकर कांग्रेसी एकाधिकार का विरोध किया. मध्यवर्ग के लोग उसके पीछे गोलबंद हुए क्योंकि यह वर्ग अति महत्वाकांक्षी तथा स्वप्नदर्शी वर्ग है. यह वर्ग कतई व्यवस्था परिवर्तन का पक्षधर नहीं है बल्कि उसी व्यवस्था में कामचलाऊ परिवर्तन कर उसे बनाये रखने का पक्षधर है. मार्क्स के शब्दों में यह वर्ग प्रतिक्रांतिकारी की भूमिका में होता है. भ्रष्टाचार का विरोध इस वर्ग में एक नई आशा का संचार करता है, इसलिए नहीं कि वह भ्रष्टाचार विरोधी है बल्कि भ्रष्टाचार में लिप्त लोगों को अपदस्थ करके वह अपने लिए जगह की मांग रखता है. अतः इनका विरोध इसलिए होता है कि ‘यदि उन्हें भी मौका मिला तो लूट के रख देंगे.’ विश्वनाथ सिंह को मध्यवर्ग का समर्थन प्राप्त हुआ. सत्ता में परिवर्तन हुआ. असंतुष्ट एवं विक्षुब्धों को सत्ता सुख प्राप्त हुआ किन्तु आम जनता ठगी गई. उनकी तक़दीर न बदली. अतः पूंजीवाद के संकट जब-जब गहरे होते हैं और इस कारण से उपजे आक्रोश के बवंडर को ऐसे चालाक लोग एक खास ‘ट्विस्ट’ देकर जनता को गुमराह करते हैं और क्रांति की संभावनाओं को लंबे समय तक टाल देते हैं. अतः इस लिहाज से जयप्रकाश नारायण तथा विश्वनाथ सिंह-दोनों ही को जनता की अदालत में खड़ा कर मुकदमा चलना चाहिए. उसी श्रृंखला में यदि अन्ना हजारे और बाबा रामदेव के भ्रष्टाचार विरोधी प्रलाप पर विचार करें तो यह कहना गलत न होगा कि ये भी जनता की पीठ में छुरा भोंकने का काम कर रहे हैं. अतः बाबाजी, आपसे अनुरोध है कि जनता के बीच जो अकुलाहट है उसे बढ़ने दें, उसके आक्रोश को पक जाने दें, उसकी एकजुटता को कामयाब होने दें-तभी सही वक्त पर कोई क्रांतिकारी कदम कामयाब हो सकता है. पत्तियां नोचने से पेड़ समाप्त नहीं होता, बुखार की दवा से पीलिया रोग ठीक नहीं हो सकता. ये तो रोग के लक्षण मात्र हैं, हमें रोग पर आक्रमण करना होगा. बाबा रामदेव, आप समझें. क्या आपको प्रधानमंत्री बना दिया जाये तो आप महंगाई रोक देंगे, बेकारी भगा देंगे, गरीबी मिटा देंगे, भ्रष्टाचार एवं अनाचार का अंत कर देंगे ? प्रधानमंत्री अपने वक्तव्य में बिल्कुल ईमानदार हैं यदि वे मानते हैं कि ‘उनके पास कोई जादुई छड़ी’ नहीं है. आपको यदि ऐसी छड़ी उपलब्ध हो तो आप जनता के सामने इसी वायदे के साथ खड़े हों न कि सत्याग्रह और अनशन रूपी अस्त्र के इस्तेमाल से अनावश्यक हिंसा एवं भ्रम का माहौल पैदा करके.
डॉक्टर अखिलेश कुमार
सेवासदन, श्रीनगर, ए. जी. कॉलोनी, पटना-२५.
मोबाईल-९२३४४२२४१३
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