Tuesday, November 15, 2011

औपनिवेशिक बिहार में शिक्षक : एक बानगी

‘बेचारे प्राइमरी स्कूल के शिक्षक, जो रात-दिन छोटे-छोटे बच्चों को लेकर रटाते रहते हैं और उन्हें पढ़ने योग्य बनाते हैं। लेकिन उन्हें केवल दस रुपया मासिक मिलते हैं। कितने गुरुओं को मैंने तीन-तीन रुपए में जिंदगी खत्म करते देखा है।...बेचारे उन गुरुओं और किसानों की एक ही हालत है। ये दोनों राष्ट्र के निर्माता ठहरे, पर इनकी तरफ ध्यान नहीं दिया जाता। फिर क्यों नहीं देश रसातल में जाए ? ...लेकिन समझ में नहीं आता कि गुरुजी के साथ ऐसी बेरहमी क्यों की जाती है, जो शिक्षा की जड़ हैं और जिन पर राष्ट्र की उन्नति बहुत कुछ निर्भर करती है ?' (देखें, त्रिवेणी संघ का बिगुल , और देखें, पी. के. चैधरीश्रीकांत, बिहार में सामाजिक परिवर्तन के दस्तावेज, विद्या विहार, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण: 2010, पृष्ठ 173).

गुरुजी की मुख्य आमदनी चटियों के महीने से थी, लेकिन इसकी गारंटी भी क्या थी ? ‘कभी-कभी किसी लड़के का बाप आकर कहने लगता था-गुरुजी, इस साल पैदा बहुत नरम है। भदई और अगहनी ने कमर तोड़ दी। चैती का भरोसा है। खेत कमाते-कमाते तो पीठ की रीढ़ धनुही हो गई, मगर करम गवाही नहीं देता तो क्या करूँ ? और कोई धंधा भी तो नहीं है! आप तो घर के आदमी हैं, हालत देखते ही हैं। आपसे क्या परदा है ? आप तो सब रत्ती-रत्ती जानते हैं। मगर चैत में सब बाकी बेबाक कर दूँगा। दाम-दाम जोड़कर ले लीजिएगा। भगवान की दया से क्या हरदम सूखा ही पड़ेगा ? अपने ऊपर चाहे लाख बीते, मगर मैं किसी का खदुक रहना नहीं चाहता। किसी का मेरे यहाँ कौड़ी का एक दाँत भी बाकी नहीं है। पेट काटकर तो मालिक की कौड़ी देता हूँ। आपकी दया से यह लड़का अगर कुछ पढ़ जायगा, तो मेरा दुख छूट जायगा। आपका नाम लेता रहूँगा। आपकी एक निसानी रह जायगी। मेरे यहाँ आपका नकद डेढ़ रुपया और साढ़े बारह सेर सीधा बाकी है। कहीं पुरजे पर टाँक लीजिए।’ (देहाती दुनिया से, शिवपूजन रचनावली, खण्ड 1, पृष्ठ 134-35)। अक्सर यह कागज पर टंका ही रह जाता।

गुरुजी की आमदनी ‘शनिचरा’ से भी होती। ‘प्रत्येक शनिवार को अक्षत और तिल से लड़के गणेश जी की पूजा करते, उन पर पैसे चढ़ाते। यह पैसा गुरुजी का होता।’ (किशोरी प्रसन्न सिंह, राह की खोज में, अन्वेषा प्रकाशन, पटना, प्रथम संस्करण, फरवरी 2002, पृष्ठ 50) लेकिन यह सौभाग्य अक्सर सोया ही रहता, क्योंकि ‘बहुत-से लड़के ऐसे थे, जो कभी चावल लाते थे तो गुड़ और पैसा नहीं, कभी पैसा तो चावल और गुड़ नहीं, कभी गुड़ तो चावल और पैसा नहीं। उनके यहां गुरुजी का दरमाहा और सीधा भी बाकी पड़ा रहता था।' (देहाती दुनिया से, शिवपूजन रचनावली, खण्ड 1, पृष्ठ 134-35). ये और बात है कि संपन्न घरों के कुछ बच्चे कभी फेल नहीं करते, ‘बल्कि किसी-किसी दिन एक पैसे के बदले गणेश जी पर दो पैसे चढ़ाते। गुरुजी हमारी (किशोरी प्रसन्न सिंह) या चन्द्रदेव (किशोरी जी के सहपाठी-मित्र) की भक्ति से बहुत प्रसन्न होते। गुरुजी हमलोगों का अधिक ख्याल रखते, इन्हीं कारणों से क्योंकि हमलोग सुसंपन्न घर के थे।’ (राह की खोज में, पृष्ठ 51)

अब पेट-पूजा का ही एकमात्र आसरा होता-‘गुरुजी भांज लगाकर पारी-पारी से अपने विद्यार्थियों के घर खाते थे, जो परिवार में बनता था, वही उनको भी मिलता था। बहुत परिवार ऐसे भी थे जहां वह नहीं खाते क्योंकि ऐसे परिवार खिला ही नहीं सकते। हमारे घर में गुरुजी के लिए अच्छा भोजन भी बनता और पारी भी जल्दी-जल्दी पड़ती।’ (किशोरी प्रसन्न सिंह, राह की खोज में, अन्वेषा प्रकाशन, पटना, प्रथम संस्करण, फरवरी 2002, पृष्ठ 50).

‘मैं गुरुजी की शिकायत नहीं कर रहा हूं। बचपन में जो देखा और भोगा है, उसे ही लिख रहा हूं।’ (वही, पृष्ठ 51) जिन्हें किशोरी जी की इस ‘शिकायत’ पर विश्वास नहीं है वे जनकवि नागार्जुन की कविता ‘प्रेत का बयान’ देखें-

‘ओ रे प्रेत-’’

कड़क कर बोले नरक के मालिक यमराज

-‘‘सच सच बतला!’’

कैसे मरा तू ?

भूख से, अकाल से ?

बुखार कालाजार से ?

पेचिस बदहजमी, प्लेग महामारी से ?

कैसे मरा तू, सच सच बतला!’’

खड़ खड़ खड़ खड़ हड़ हड़ हड़ हड़

काँपा कुछ हाड़ो का मानवीय ढाँचा

नचाकर लम्बी चमचों-सा पंचगुरा हाथ

रूखी-पतली किट-किट आवाज में

प्रेत ने जबाव दिया-

‘‘महाराज !

सच सच कहूँगा

झूठ नहीं बोलूँगा

नागरिक हैं हम स्वाधीन भारत के....

पूर्णिया जिला है, सूबा बिहार के सीवान पर

थाना धमदाहा, बस्ती रूपउली

जाति का कायथ

उमर है लगभग पचपन साल की

पेशा से प्राइमरी स्कूल का मास्टर था

तनखा थी तीस, सो भी नहीं मिली

मुश्किल से काटे हैं

एक नहीं, दो नहीं, नौ नौ महीने !

घरनी थी, माँ थी, बच्चे थे चार

आ चुके हैं वे भी दया सागर करुणा के अवतार

आपकी ही छाया में !

मैं ही था बाकी

क्योंकि करमी की पत्तियाँ अभी कुछ शेष थीं

हमारे अपने पुस्तैनी पोखर में

मनोबल शेष था, सूखे शरीर में....’’

‘‘अरे वाह-’’

भभाकर हँस पड़ा नरक का राजा

दमक उठीं झालरें कम्पमान सिर के मुकुट थी

फर्श पर ठोककर सुनहला लौह दण्ड

अविश्वास की हँसी हँसा दंडपाणि महाकाल

‘‘-बड़े अच्छे मास्टर हो:

आये हो मुझको भी पढ़ाने !!

मैं भी तो बच्चा हूँ ....

वाह भाई वाह !

तो तुम भूख से नहीं मरे ?’’

हद से ज्यादा डालकर जोर

होकर कठोर

प्रेत फिर बोला

‘‘अचरज की बात है

यकीन नहीं आता है मेरी बात पर आपको ?

कीजिए न कीजिए आप चाहे विश्वास

साक्षी है धरती, साक्षी है आकाश

और और और भले व्याधियाँ हों भारत में ..किन्तु..’’

उठाकर दोनों बाँह

किट किट करने लगा जोरों से प्रेत

-‘‘किंतु भूख या क्षुधा नाम हो जिसका

ऐसी किसी व्याधि का पता नहीं हमको

सावधान महाराज

नाम नहीं लीजिएगा

हमारे सामने फिर कभी भूख का ’’

निकल गया भाफ आवेग का

शांत स्तिमित स्वर में प्रेत फिर बोला-

‘‘ जहाँ तक मेरी अपनी बात है

तनिक भी पीर नहीं

दुख नहीं, दुविधा नहीं

सरलता पूर्वक निकले थे प्राण

सह नहीं सकी आंत जब पेचिश का हमला ....

सुनकर दहाड़

स्वाधीन भारतीय प्राइमरी स्कूल के

भुखमरे स्वाभिमानी सुशिक्षित प्रेत की

रह गये निरुत्तर

महामहिम नरकेश्वर ! !

2 comments:

चंदन कुमार मिश्र said...

पिताजी को भी धान देकर शायद पढ़ा है छात्रों ने, जब वे विद्यालय में शिक्षक नही थे…मुझे आपकी सब बातों से वजनदार कविता ही लगी…नागार्जुन की यह कविता अतुलनीय और इतिहास सी लगती है…बहुत बहुत शुक्रिया इसे पढ़वाने के लिए…

english said...

sateek likhe hain.