Saturday, January 17, 2009

संस्कृति और इतिहास-बोध- 2

संस्कृति प्रवहमान होती है...

संस्कृत के क्षेत्र में इस तरह के अलगाव की प्रक्रिया तब शुरू होती है, जब विकास की एक खास यात्रा हम तय कर चुके होते हैं। उससे पहले शायद ऐसा करना संभव भी नहीं होता। हम इतिहास के अनुभवों के आधार पर देखें तो साफ होगा कि जिस आर्य या वैदिक संस्कृति पर हम गर्व करते हैं, वह अपने प्रारंभिक दिनों में ऐसी कुछ भी नहीं थी। बल्कि कहना होगा कि आर्यों का भारत आगमन इसीलिए एक पिछड़ा कदम था। इसलिए अपने शुरुआती दिनों में आर्यों को जहां कहीं कुछ बेहतर मिलता, अनुकरणीय लगता। उसे वे अपनाने में तनिक संकोच नहीं करते। यहां तक कि दूसरों की पत्नियों और देवता तक को अपना डालते थे। आर्यों को भारतीय प्रदेशों में औरतों की कमी महसूस हुई होगी, क्योंकि लंबी यात्रा में कुछ मृत्यु को प्राप्त हुई होंगी। नतीजतन आर्यों के कई देवता तक बगैर पत्नी के जीवन गुजारने का अभिशप्त हैं। गोरे आर्यों की काली संतानें पैदा हो रही हैं। काले ऋषियों की उस दौर में बाढ़ है।
इन्हीं बातों को लिखने के लिए मुक्तिबोध की पुस्तक "भारतः इतिहास और संस्कृति" की प्रतियां जला दी गईं। आर्य-रक्त की शुद्धता का दावा करने वाले लोगों को भारतीय संस्कृति का यह विमर्श अच्छा नहीं लगता। इससे श्रेष्ठता और शिष्टता वाला भाव जाता रहता है. वे संस्कृति को एक अत्यंत गोलमटोल अर्थ में लेना चाहते हैं। जबकि संस्कृति की अनंत परतें हैं। एक साथ कई रूपों और कई धाराओं में संस्कृति प्रवहमान होती है। इन धाराओं की आपसी टकराहट और सम्मिलन की प्रक्रिया में ही संस्कृति जीवंत बनती और संवर्धित होती चलती है। जिस संस्कृति और कौम में टक्कर और आत्मसातीकरण की प्रक्रिया नहीं चल रही होती या ठप पड़ जाती है, उसका नष्ट होना तय होता है। इतिहास-बोध से संपन्न व्यक्ति को मालूम होता है कि मानव जाति द्वारा निर्मित ऐसी कितनी ही संस्कृतियां काल के गर्भ में विलीन हो गईं, क्योंकि समय की धारा को अपने अंदर समाहित नहीं कर सकीं।
संस्कृति अपने को कई रूपों में व्यक्त करती है। परंपरा और रीति-रिवाज इनमें प्रमुख हैं। जिस तरह एक बहुलतावादी समाज में संस्कृतियों की बहुलता होती है, उसी तरह परंपरा की भी बहुलता होती है। कई परंपराएं एक ही काल में जीवित होती हैं। इनकी आपसी टकराहट से ही नवीनता का उन्मेष होता है। संस्कृति को एक निश्चित ऐतिहासिक दृष्टिकोण से देखने का मतलब एक स्वस्थ और समग्र दृष्टिकोण पैदा करना होता है।
यानी किसी देश या जाति की संस्कृति की अध्ययन या उसकी आलोचना प्रस्तुत करते हुए हमें मुख्य रूप से दो बातों- निरंतरता और परिवर्तन को चिन्हित करने का प्रयास करना होता है। निरंतरता और परिवर्तन की इस प्रकिया में परंपरा संस्कृति की स्मृति होती है। जिस तरह प्रत्येक राष्ट्र और जाति की अपनी स्मृति है, ठीक उसी तरह संस्कृति अपनी परंपराओं में बसती है। मनुष्य की स्मृति में सब कुछ कैद नहीं होता। बहुत कुछ छोड़ते जाते हैं और नया ग्रहण करते जाते हैं। संस्कृति भी परंपरा का त्याग करती जाती है और नवीनता का अंगीकार।
यहां इतिहास-बोध यह निर्णय देता है कि परंपरा हमेशा न तो त्याज्य है और न ही नवीनता हमेशा ग्राह्य। कालिदास जब "मालविकाग्निमित्र" में कहते हैं कि जो पुराना है वह सभी सुंदर नहीं है और न नया मात्र नया होने से ही निंद्य है, तो इसी बात को वे भिन्न तरीके से कह रहे होते हैं। यह कालिदास का इतिहासजनित विवेक ही है, जो परंपरा और नवीनता के बीच फर्क की पहचान करता है।

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