यह अजीब-सी बात है कि बिहार में आये बदलाव को प्रदेश के बाहर के लोगों ने कुछ पहले जाना-समझा। इस बदलाव की धमक अमेरिका पहले पहुची, बाद को वहीं से रिडायरेक्ट होकर दुनिया के भिन्न-भिन्न कोनों में फैली। निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि बदलाव हुए हैं। बिहारवासी 'जंगल-राज' से चलकर सुशासन 'में दाखिल हो रहे हैं। ये दोनों ही 'फर्जी' नाम पत्रकारों-बुद्धिजीवियों की एक खास 'प्रजाति' के द्वारा गढ़े गये हैं। आश्चर्य होता है कि सुशासन की डुगडुगी बजाने में वही बुद्धिजीवी-पत्रकार शामिल हैं, जो 'जंगल-राज' के दिनों में 'लालू-राबड़ी ' की जीवनी तैयार करने हेतु लेखक ढूंढ रहे थे।
जंगल-राज और सुशासन में एक तात्विक अंतर है, जिसे मैं एक तटस्थ बिहारवासी होने के नाते महसूस कर सकता हूं। जंगल-राज के दिनों में सरकार उदारीकरण एवं बाजारवाद जैसी चीजों पर सखतीपूर्ण रवैया अपनाती थी। धनिकों का विरोध एवं गरीबों की भलाई स्थायी घोषणा थी उसकी। ये और बात है कि शब्द और कर्म में कभी मेल नहीं बिठाया जा सका। सुशासनी सरकार ने शब्द और कर्म की एकता दर्शायी है। यह सरकार वैश्विक पूंजी की गोद में बैठकर न केवल बातें करती है बल्कि उसके अनुपालन के लिए हर संभव प्रयास भी करती है। सूत्र रूप में कहें कि वर्तमान सरकार पूंजीपति वर्ग द्वारा तैयार उपभोक्ता माल की बिक्री की गारंटी देती है।
यह सब करने के लिए व्यापक प्रचार-प्रसार की जरूरत पड ती है। अखबार इस जरूरत को आसानी से पूरा कर सकता है। इसलिए 'सरकारी' पत्रकारों की एक फौज जमा की गई। ऐसे पत्रकार अब सामयिक ज्वलंत मुद्दों पर न लिखकर 'कानों-कान' सुनते हैं और 'भूले-बिसरे' मुद्दों पर लिखते हैं। सामयिक घटनाओं पर लिखने के अपने 'खतरे' हैं। सामयिक चिंतन का 'मूड' तभी बनता है जब सरकार के नेता से असंतुष्ट विधायकों/लोगों को 'अपने पुराने घर' में वापिस लाने का इन्हें 'सरकारी फरमान' प्राप्त होता है। अखबार के मालिकों के लिए अलग से पैकेज की व्यवस्था की गई है। उनको सरकार की तरफ से मिलनेवाले विज्ञापनों में तीन-चार गुने की अप्रत्याशित वृद्वि की जा चुकी है। नतीजतन, अखबार के मालिक से लेकर नौकर-चाकर तक-सभी जनता को सुशासन की 'हवा मिठाई' बांट रहे हैं। बालिका सायकिल योजना के पक्ष में भी अखबारों/पत्रकारों ने सकारात्मक माहौल बनाने का जी-तोड़ प्रयास किया था। हमें बार-बार बताया गया कि महिला सशक्तिकरण की दिशा में यह एक क्रांतिकारी प्रयास है। इसमें कई लोगों को कई तरह से कमाई का अवसर मिला। सरकार से लेकर विद्यालय के प्रधानाध्यापक तक को। सायकिल निर्माता कंपनियों को जब सिर्फ लडकियों को ही सायकिल बेचकर संतोष न हुआ तो सरकार को अपनी योजना में संशोधन लाना पड़ा जाहिर है, अब बालकों को भी सायकिल दी जा रही है। महिला सशक्तिकरण की बात कहां रही तब।
सायकिल का ही गोतिया मोटरसायकिल है। मोटरसायकिल बेचने का जरिया बेचारी पुलिस को बनना पडा। ध्यान रहे कि यह कोई आम या किफायती मोटरसायकिल नहीं है, बल्कि अपाचे टीवीएस १६० है। निश्चित रूप से इसकी खपत खुले बाजार में संभव नहीं क्योंकि इसकी कीमत अन्य आम मोटरसायकिल की तुलना में डेढ गुनी अधिक है। वर्तमान में इसकी कीमत ६१,००० रुपये है। यह सब जनता की 'सुरक्षा' और 'सुव्यवस्था' बहाल करने हेतु किया गया। हां, इससे इतना तो अवश्य हुआ कि पटना की सडकों पर पुलिस अब नजर आने लगी है! लोकतंत्र में पुलिस की 'सक्रियता' बढ जाए तो सुव्यवस्था का अंदाजा आप लगा ही सकते हैं। विधायकों को बड़ी गाडी दी गई। जनता के लिए रात-दिन एक वही तो करते हैं
शिक्षा का क्षेत्र अभी सबसे बड़ा बाजार है। इस क्षेत्र में विदेशी बड़ी कंपनियों को अवसर प्रदान करने के लिए केन्द्र सरकार भी कई गलत-सही तरीके से प्रयत्नशील है। इसलिए हमारी राज्य सरकार के पास एक 'नैतिक आधार' (वैसे अब इसकी फिक्र ही किसे है ) भी है। लगभग प्रत्येक उच्च माध्यमिक विद्यालय को पचास लाख रुपये की राशि प्रदान की गई है। इसमें कसरत-व्यायाम (जिम) के सामान से लेकर पुस्तकालय के लिए किताबों की खरीद तक शामिल है। जिम के सामान पर प्रत्येक विद्यालय को लगभग चार लाख की राशि खर्च करनी है। 'कुपोषण ' के शिकार नव नियोजित शिक्षक (उनका नियत वेतन मात्र छः हजार रुपये है। अगर सरकार की वर्तमान घोषणा को आधार बनाया जाये तो यह आठ हजार ठहरता है।) एवं अनीमिया से ग्रस्त बच्चे-बच्चियां जिमखाने से लाभ उठा सकेंगे-इसकी कल्पना मात्र क्या हास्यास्पद नहीं है ? सरकार ने यह आदेश भी पारित किया है कि प्लस टू के बच्चों को पढ़ाने के लिए पास-पड़ोस के एम. ए. पास युवकों को धरा-पकड़ा जाये और डेढ सौ रुपये की दैनिक मजदूरी देकर उन्हें उपकृत किया जाये। बिहार में लगता है, मानव संसाधन के उपयोग एवं विकास का यह 'सुशासनी नुस्खा' अपने आप मे एकदम ही 'मौलिक' विचार है। जहां तक पुस्तकालय के लिए किताबों की खरीद की बात है, वहां भी व्यापक गड़बड़ी देखी गई। एक तो सरकारी निर्देश के आलोक में टेक्स्ट बुक्स ही खरीदी गईं, और ठीक दूसरे वर्ष कक्षा नौ का पाठ्यक्रम बदल दिया गया। एकबारगी पुस्तकालय कूड़ाघर में तब्दील हो गया। ऐसी खरीद का आप क्या मतलब निकाल सकते हैं। दूसरी तरफ प्राथमिक विद्यालयों में सात पेजी चित्र-पुस्तकें ४०-५० रुपये में खरीदी गईं। यह सब सुशासनी सरकार के सखत निर्देशन में हुआ। यहां तक कि खरीद के लिए दुकान भी तय थी।इतना ही नहीं, प्रत्येक विद्यालय को कंप्यूटर देने की हमारी सरकार की अत्यंत 'महत्वाकांक्षी' योजना है। इस योजना को जमीन पर उतारने की दिशा में कुछ आवश्यक पहल भी हुई है। आप समझ सकते हैं कि जहां विद्यालयों में तक की सुविधा उपलब्ध नहीं है, वहां कंप्यूटर देने के पीछे ''सुशासन की क्या हो सकती है। गौरतलब यह भी है कि प्रत्येक बच्चे को लैपटॉप से युक्त बनाने की अद्यतन योजना पर विमर्श जारी है। क्या मजाक है कि शिक्षक वर्ग में बगैर जूते (उनकी तनखवाह एक जोड़ी जूते के बराबर है) उपस्थित हों और बच्चे लैपटॉप पर चैटिंग करते। यह सब सुशासन ही में संभव है।
इसलिए, सुशासन के पैरोकार बुद्धिजीवियों से मेरी गुजारिश है कि वे मेरी इन बातों की तथ्यात्मक भूलों/गलतियों को बताएं, केवल सुशासन की हवा-मिठाई ही न बेचें।
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