Saturday, August 14, 2010

फिर वही कविता-चंद्रमोहन प्रधान का पत्र


‘नभाटा’(15 नवंबर) में श्री देवी प्रसाद मिश्र की ‘आलोचना’ पत्रिका में छपी कविता मुसलमान पर श्री राजूरंजन प्रसाद की प्रतिक्रिया देखी। श्री प्रसाद ने अपनी तथाकथित प्रगतिशीलता के पूर्वाग्रह में इतिहास व परंपरा संबंधी अपने अज्ञान का ही अधिक प्रदर्शन किया है।

मैं मुसलमान विरोधी बिल्कुल नहीं, मेरी मान्यता है, उन भारतीय मुसलमानों का घर भी यहीं है और वे सभी पाक-परस्त भी नहीं, तथापि इतिहास के तथ्यों के साथकिसी भी धार्मिक-राजनीतिक-सामाजिक आग्रहों को फेंटकर दृष्टि को बहकने देना नहीं चाहिए। भले ही इससे कितनी भी सामयिक हो अपने निजी वादों/आग्रहों के लिए इतिहास को प्रदूषित करना भयंकर भूल है।

श्री प्रसाद ने कविता के प्रारंभ में ही बड़े झूठ की बात लिखते कहा है कि ‘कवि ने लिखा, ‘उन्होंने अपने घोड़े सिंधु में उतारे और पुकारते रहे हिंदू! हिंदू!! हिंदू!!! बड़ी जाति को उन्होंने बड़ा नाम दिया और इसपर टिप्पणी देते वह कहते हैं कवि को शायद मालूम नहीं कि सिर्फ सिंधु प्रदेश को उन्होंने हिंदू कहा, किसी जाति या समुदाय को उन्होंने हिंदू संबोधित नहीं किया था।’

सच तो यह है कि सिंधु प्रदेश को बाहरी, मुसलमान आक्रांताओं ने ‘हिंद’ कहा,उच्चारण दोष से वे उकार छोड़ गये और चूंकि पहले-पहल सिंधु प्रदेश में वे उतरे, अतः उन्होंने ‘भारत पहुंच कर उस देश को ही सिंधु अथवा ‘हिंदू’ कह दिया और उस समय उन आका्रंताओं के सिवा भारत में मुसलमान नहीं थे, वे यहां के सभी निवासियों को सहज ही में हिंदू कहने लगे (द्रष्टव्य है, तब अरब से मुहम्मद बिन कासिम 600 की अश्वारोही सेना के साथ भारत के सिंधु प्रदेश में उतरा था), उन्होंने अपने घोड़े सिंधु प्रदेश में उतारे या सिंधु नदी में तथ्य ये ही है।

सबसे बड़ी बात श्री प्रसाद भूलते हैं कि कविता आज के मुसलमान के बदले उन बाहर से आए, आक्रांता, नवोदित धर्म के जोशीले बंदों व जुझारू सैनिक मुसलमानों पर है जो भारत को जय करने, वहां अपना धर्म फैलाने बढ़े थे। वे अरब व मध्य एशिया की कठोर भूमि, ऋतु के अभ्यस्त कठिन जीवन के आदी व दुर्धर्ष योद्धा थे, उन्हें भारत से न प्रेम था न वे यहां रसने-बसने आए थे न मैत्री भावना से। उनके विपरीत, भारत के हिंदू जो जो बाद में मुसलमान बने, उनकी संस्कृति व स्वभाव में भारतीयता अधिक है, भले ही धार्मिक कारणों से वे खुद को अरब-ईरान व उन पुराने आक्रांताओं के साथ जोड़ें। कवि ने तो चित्रण किया है यहां उन पुराने आक्रामकों का जिनकी क्रूरता व विजयों से इतिहास भरा है तब भारत में केंद्रीय सत्ता नहीं थी, लोग बंटे थे, दुर्बल थे। सुखद मौसम, परंपरा व संस्कारों के कारण साहित्य/कला/र्दान/विद्या में अग्रणी थे पर बौद्ध सम्राटों के कारण उनकी युद्धक परंपरा का ह्रास हो चला था। वे आक्रमण के लिए अच्छे निशाने थे। धार्मिक जेहादियों से वे हारे, मुसलमान भी बने।

अतः श्री प्रसाद जब इन आक्रांताओं के वर्णन (उनकी मुट्ठियों में घोड़ों की लगामें और म्यानों में सभ्यताओं के नक्शे होते थे) की कविता पंक्तियों के तत्काल बाद कहते हैं कि वे हिन्दुस्तानी तहजीब के अंग बन चुके थे। आपस में लोग इतने घुल-मिल गये थे कि पता नहीं लगता था कि वे हिंदू हैं या मुसलमान तो निःसंदेह वे कई पीढ़ियों बाद वाले मुसलमानों के बारे में कह रहे हैं जो पहले हिंदू ही थे। मुस्लिम शासन युगों में सभी नागरिकों का रहन -सहन शासकों के अनुकरण में मुस्लिम संस्कृति से प्रभावित था। तब धर्म निजी चीज बन गई थी, क्योंकि राजधर्म घोषित रूप से इस्लामी था। किंतु, जहां तक कवि की उन आक्रांताओं के बारे में पंक्तियां हैं, वे सही हैं, इतिहास सम्मत भी हैं।

श्री प्रसाद ने खुसरो-गालिब-कबीर की उपज की बात को लेकर भी कवि के इतिहास ज्ञान की खिल्ली उड़ाते कहा है उनका (कवि का) मानना है कि वे न होते तो उपमहाद्वीप के संगीत को सुननेवाला खुसरो न होता वे न होते तो पूरे देश के गुस्से से बेचैन होनेवाला कबीर न होता/वे न होते/तो भारतीय प्रायद्वीप के दुख को कहनेवाला गालिब न होता...प्रसाद जी पूछते हैं, ‘मुसलमानों के आने से ही कबीर गालिब पैदा हुए यह इतिहास की कौन सी व्याख्या है? असलियत तो यह है कि ये सारे लोग सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों की उपज थे। मार्क्सवादी अंदाज में कहा जाए तो ‘हिस्टॉरिकल डेवलपमेंट’ की नियति थे।’

संभव है, प्रसाद जी बड़े इतिहासज्ञ हों, किंतु इतिहासज्ञ को अपने खुले चश्मे से और मार्क्सवादी नहीं, अपने चश्मे से देखना चाहिए, जिसके साथ नृतत्वशास्त्र और सामाजिक सांस्कृतिक परिस्थितियों के अध्ययन का भी योग रहना चाहिए। इस कविता में श्री मिश्र का यह आशय नहीं था कि मुसलमान के न आने से इन कवियों जैसी रचनाएं ही न हुई होतीं, बेशक ‘हिस्टॉरिकल डेवलपमेंट’ दूसरे परिस्थितिजन्य खुसरो, कबीर गालिब पैदा करता पर मिश्र जी का आशय है कि उन्होंने जो हिन्दू-मुस्लिम भाषा संस्कृति के मिश्रण से तथाकथित गंगा-जमुनी संस्कृति के प्रादुर्भाव में अमूल्य योग दिया उसके लिए इनका महत्व रहेगा, मुस्लिम न आए होते तो खुसरो-गालिब की जगह लेनेवाले कवि अवश्य हुए होते, (जैसाकि प्रसाद जी का हिस्टॉरिकल डेवलपमेंट बताता है) और उन्होंने समकालीन परिस्थितिजन्य विपर्यासों का वर्णन भी अपने ढंग से किया होता, लेकिन अन्य भाषा-संस्कारों के साथ खुसरो गालिब की शैली, ईरानी-भारतीय संस्कृतियों का अपने-आप में मोहक स्वरूप तो देखने को न मिलता।

विरोधाभासों, दो संस्कृतियों के टकराव के विपर्ययों का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि खुसरो धार्मिक दृष्टि से हिंदू को तिरस्कृत, नीचा मानते थे, कट्टर मुस्लिम और साम्प्रदायिक थे पर वे ही खुसरो खुद को हिंद की तूती कहते हैं। टकसाली हिंदी व ब्रजभाषा में लिखते हैं, ‘काहे को बियाहीं विदेस, ऐ लखिया बाबुल मोरे’, जैसे गीत लिखते हैं, ‘भाखा’ को ‘हिंदवी’ (हिंदी) नाम देते हैं और आज तक हिंद के हिंदुओं के प्रिय पात्र, प्रशंसा पात्र कवि रहे हैं। गालिब अपने ईरानी पुरखों को नहीं भूलते, जिंदगी दिल्ली के कूचा कासिमजान में बीता दी, जिगरी दोस्त थे बंशीधर, फारसी छोड़ हिंदी-फारसी की खिचड़ी- अर्थात उर्दू अपना गये। सौदा ऐसे महाकवि मशहूर व्यक्तित्व का कथन था, सिजदा न करूं हिंद की नापाक जमीं पर और हिंदुओं ने उन्हें हिंदुस्तानी ही माना, जिंदगी भर यहीं की नापाक जमीं पर रहे पले-बढ़े यहीं के अन्न-पानी से जिए बने रहे कट्टर मुसलमान दोस्त-पड़ोसी रहे हिंदू।

प्रसाद जी कहते हैं, कि ‘कवि की कल्पना है कि ये (मुसलमान) रहते हैं भारत में और दोस्त-रिश्तेदार पाकिस्तान में तलाशते हैं।’ यह सही बात है जो आप के गरीब पड़ोसी मुसलमान हैं उन्हें पाकिस्तान में कौन पूछता है कौन वहां उन्हें जाने का खर्च देता है पर जो समर्थ है भरसक अपने संबंध वहीं बनाना पसंद करते हैं। शादी-ब्याह ही नहीं मुसलमान को अपने तीर्थों, धर्म, संस्कारों के लिए भी अरब से पाक तक की भूमि की कोशिश खींचती है, यह कटु सत्य है, वह भले ही पुरखों की भारत भूमि से प्यार करता हो, पैगम्बर की भूमि उसे कैसे नहीं खींचेगी? उसकी राष्ट्रीयता हिंदू वाली नहीं रह सकती है। इस मामले में उसे दोषी नहीं कह सकते और भारत यदि इस बीच किसी चमत्कार से मुसलमान हो जाए तो क्या उन्हें अच्छा न लगेगा?

पंडित नेहरुप्रेमचंद के कथन उनके समकालीन भारतीय मुसलमानों के लिए है जो भारतीय संस्कृति की उपज है, धर्म मात्र से मुस्लिम है किंतु 800 वर्ष पूर्व के मुस्लिम आक्रांताओं में भारतीयता कितनी मात्रा में थी, प्रसाद जी ही जानें।

मुगलकाल में अकबर आदि के हिंदू स्त्रियों से विवाह की बात पंडित नेहरु कहते हैं जिसका उद्धरण प्रसाद देते हैं। यह सच है शासकों ने उदारता व मैत्री भाव से ऐसे विवाह कर अपनी स्थिति मजबूत की, संबंध बढ़ाए। पर कितनों ने अपनी बेटियों की शादी हिंदुओं के साथ की। इसे प्रसाद जी इतिहास ग्रंथ उलटकर बताएं। इस तरह की लंबी चौड़ी आदर्श बातें हमेशा सुनने को मिलती हैं, भावात्मक यथार्थ से इनका संबंध रहता तो आज हिंदू-मुस्लिम समस्या ही न होती।

किंतु है, क्योंकि मुसलमान सही अर्थों में हिंदू से घुलता-मिलता नहीं। वह मात्र मिलता है पर अपनी समानांतर पहचान बनाए रखने के लिए कुछ भी कर सकता है। अपनी मित्रता वह कदापि नहीं भूलता। शक हूण किरात आदि कितनी ही आक्रामक जातियां भारत में आईं। यहीं की होकर रह गईं, घुल-मिल गईं पर 800 वर्षों से मुसलमान समांतर है, समांतर रहकर भी मजे में भारतीय हुआ जा सकता है, पर बहस तो इसी मुद्दे पर है कि यह कितना हो पा रहा है।

बाबर से लेकर बहादुरशाह जफर तक मुसलमान सरदारों के नाम के साथ अक्सर उनके पुरखों की मूल भूमि ईरान, मध्य एशिया आदि की याद रखने के लिए शीराजी, तब्रेजी, इस्कहानी, समरकंदी, गोरी, गजनवी आदि लगते रहे। आज जो मौलाना बुखारी हैं, वे बुखारा शरीफ को कैसे भूलेंगे, लेकिन बुखारा के ही निवासी मशहूर खोजा नसीरुद्दीन वाली धर्मनिरपेक्षता उनमें थोड़े है। निःसंदेह, आर्य भी बाहर से आए पर इसके 4 हजार वर्ष बीते। उसके भी पूर्व वे ईरान में सदियों से बस चुके थे। मुस्लिम धर्म को अभी प्रतीक्षा करनी चाहिए। उसे भारत में अभी कुल 800 वर्ष हुए हैं और देशों जातियों के इतिहास में यह कोई बहुत बड़ी अवधि तो नहीं है।                                                                                    

प्रकाशन: नवभारत टाइम्स, पटना, 21 नवंबर 1990।

3 comments:

कुमार मुकुल said...

patr lekhak ka nam dikh nahi raha,chut gaya hai,net kharab hai,bahar se likh raha

राजू रंजन प्रसाद said...

धन्यवाद !
सुधरा हुआ देखें

Rahul Singh said...

कवि का चेहरा और फिर यह पोस्‍ट. गोया कभी यह सुध भी ले लें कि छत्‍तीसगढ़ में कई मुस्लिम रामायणी हैं और बाबू खान की पहल और उद्यम से बने मंदिर के साथ कुछ और बातें मेरे ब्‍लॉग के पोस्‍ट राम-रहीमःमुख्‍तसर चित्रकथा में देख सकते हैं.