मेरे एक पुराने पोस्ट धर्मनिरपेक्षता के अंतर्विरोध --3 पर निशाचर जी ने कुछ सवाल खड़े किये थे। उनका हवाला देते हुए मिहिरभोज ने भी कुछ बातें कहीं। दोनों की बातों को देखते हुए अपने पक्ष में कुछ बातें रखना मेरे लिए आवश्यक-सा हो गया है।
मैं कहूं कि निशाचर जी ने जो सवाल खड़े किये हैं वे उनके पूर्वाग्रह से निर्धारित-नियंत्रित हैं। मेरे लेख में कहीं भी राष्ट्रवाद की अवधारणा या राष्ट्र की आवश्यकता का निषेध नहीं है। ये और बात है कि भारतीय राष्ट्रवाद का जो तत्कालीन स्वरूप था उससे सांप्रदायिकता को बल मिला है। एक राष्ट्र की भौगोलिक सीमा की अनिवार्यता से फिलहाल मुझे इनकार नहीं है। निशाचर जी को भला यह कैसे नहीं मालूम कि ये गैर-मार्क्सवादी लोग हैं जो राष्ट्र की अवधारणा को अप्रासंगिक बता रहे हैं। आप कहने से क्यों परहेज कर रहे कि यह जमात नव-साम्राज्यवादियों की है। विश्वग्राम, उदारीकरण आदि सब राष्ट्र-राज्य की कब्र ही से तो निकले हैं।
मेरी जानकारी दुरुस्त करते निशाचर फरमाते है कि ‘वेद धर्म और जाति को उस रूप में परिभाषित नहीं करता जिस रूप में आज हम उसे जानते हैं।’ मुझे इस बात से बेहद खुशी मिली कि चलिए निशाचर भाई में थोड़ा ही सही, इतिहास-बोध बाकी है। लेकिन क्या मैंने ऐसा कहा है ? निशाचर जी की समस्या है कि वे राष्ट्र को धर्म के साथ मिलाकर देख रहे हैं। हिन्दू राष्ट्रवाद के चश्मे से ऐसा ही दिखता है। आपकी जानकारी के लिए निवेदन है कि राष्ट्र के उदय से बहुत पहले धर्म का ‘आविष्कार’ किया जा चुका था। राष्ट्र का आधार अगर धर्म होता, जैसा निशाचर जी स्थापित करते हैं, तो दुनिया में जितने धर्म हैं, राष्ट्रों की संख्या भी उतनी ही होती। न एक ज्यादा न एक कम। क्यों ?
जहां तक हिन्दू धर्म की सहिष्णुता की बात है तो वह औरतों और शूद्रों से पूछिए। (लगता है, आप इन दो में नहीं आते।) इन दोनों का विश्वास न हो तो सर्वमान्य तुलसी बाबा से ही पूछ लें। बेचारे को कहना ही पड़ा-धूत कहौ अवधूत कहौ।
आपलोग तो तमाम की कुण्डली पास रखते हैं। मैं हिन्दू हूं-यह किस खुफिया एजेंसी से आपको पता चला ? क्या इससे किसी पूर्वाग्रह का पता नहीं चलता?
पुनश्च: खैर कहिए कि मैं आपके ‘रेंज’ से बाहर हूं वरना कुछ एक-आध पत्थर मारने के मूड में तो आप भी हैं मिहिरभोज जी। आप तो हिन्दू (?) होकर भी सहिष्णुता का परिचय नहीं दे पा रहे!
3 comments:
nice
mindblowing...!!!
superb.....!!!
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