स्वतंत्रता दिवस की ही भांति रक्षा-बंधन के अवसर पर भी मैंने ‘ऑरकुट ’ एवं ‘फेसबुक’ के अपने साथियों को शुभकामनाएं दी। हालांकि रक्षा-बंधन के अवसर पर मंगल-कामना करते हुए मेरे मन में एक संकोच बना हुआ था। मुझे डर था कि कहीं गैर-मार्क्सवादी या मार्क्सवाद विरोध न करार दिया जाऊं। इस डर की वजह यह है कि मैंने अपने मार्क्सवादी( ?) मित्र मनोज कुमार झा से सुन रखा था कि वे इसे स्त्री विरोधी मानते हैं। वे अपनी बहनों से राखी नहीं बंधवाते थे, क्योंकि राखी का पर्व उनके लिए स्त्री को कमजोर, अबला मानने अथवा साबित करने का पर्व था। मनोज ने अपने बेटे-बेटियों को भी इस ‘कुप्रथा’ से दूर रखने का हरसंभव प्रयास कर रहे हैं। फेसबुक पर कई दूसरे मित्रों ने भी इसी से मिलते-जुलते आशय वाले विचार व्यक्त किये। तस्लीमा नसरीन ने तो सवाल ही खड़ा कर दिया कि ‘बहन ही भाई को राखी क्यूं बांधे, भाई बहन को क्यों नहीं?’ कुछेक इसके समर्थन में भी प्रस्तुत हो गये।
अव्वल तो यह कि बहन द्वारा भाई को राखी बांधा जाना हमारी परंपरा का हिस्सा है। इसका कोई ऐतिहासिक आधार नहीं है। दूसरे कि केवल बहन ही भाई को राखी बांधती है, ऐसा कहना अपने अनुभव-जगत को छोटा करना है। तस्लीमा नसरीन जैसे रचनाकार से, जिनकी बातें एक बड़े पाठक-वर्ग के लिए ‘अंतिम सत्य’ की तरह होती हैं, इस तरह के अगंभीर वक्तव्य की आशा नहीं की जा सकती।
जहांतक मैंने अपने बचपन में देखा है, रक्षा-बंधन के दिन हमलोग सुबह-सुबह स्नान करते और अपने कुल-पुरोहित (ब्राह्मण) के आने का इंतजार करते। वे आते और हम तमाम लोगों की कलाई पर राखी बांधते। हां, इतना अवश्य ख्याल रखते कि पुरुषों की दाईं कलाई पर राखी बांधते और स्त्रियों की बाईं। लेकिन बांधते सबको। यह ब्राह्मण (पुराहित वर्ग) का बंधन होता। तदुपरांत, घर में बहनें अपने भाइयों को राखी बांधती। जिसे बांधा जाता वह बंधन में होता। यह बात तो कल्पना से भी परे की है कि एक ब्राह्मण राखी बंधकर खुद बंध जाता! बहनों के बारे में भी यही ख्याल है। पता नहीं यह अविवेकी व्याख्या कहां से निकल पड़ी कि बहनें अबला हैं, इसलिए अपने रक्षार्थ राखी बांधती हैं।
मैंने यह भी पाया कि लोग पंडितजी से अतिरिक्त राखी लेते और अपनी-अपनी लाठी को भी बांधते। इस तरह से ‘दंड’ को बांधकर ‘अति-उत्पात’ से बचने की कोशिश होती। हम बच्चे लोग पूरे साल उस राखी को अपनी किताबों के बीच पन्नों छिपाये-सहेजे रखते। मैंने इतिहास की किताबों में पढ़ रखा है कि सन् 1905 ई. में जब बंग-भंग हुआ था तो स्वदेशी आंदोलन के पैरोकरों ने एक-दूसरे की कलाई पर राखी बांधकर राजनीतिक एकता का परिचय दिया था। यहां भी स्त्री-पुरुष का कोई भेद नहीं था। भेद तो ‘नारीवादी विमर्श’ के दर्शन में है। यह भेद खत्म हो जाये तो नारीवादी विमर्श का आधार ही क्या ? इसलिए तसलीमा जी, आपके इस कथन का कोई ऐतिहासिक महत्व नहीं है। संभव है, कोई ‘राजनीतिक’ मकसद निकल आये!
3 comments:
किउकी वो बहन है और प्यार करती है भाई को
In fact , as far as the blending of myth and histry coming to us may be the basis for this phrase , the first rakhi was fastened on the wrist of Indra by his wife Sachi . So , Taslimaji , not only sisters , wives also can do it .
Apka "बहन ही भाई को राखी क्यूं बांधे?" article ka sngle pasnd aya. alekh pr bdhai le!
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