Tuesday, August 31, 2010

साहित्य और उसका चरित्र



हमारे युग की कला क्या है ? न्याय की घोषणा, समाज का विश्लेषण,परिणामतः आलोचना। विचार तत्व अब कला तत्व में समा गया है। यदि कोई कलाकृति केवल चित्रण के लिए ही जीवन का चित्रण करती है, यदि वह उसमें आत्मगत शक्तिशाली प्रेरणा नहीं है जो युग में व्याप्त भावना से निःसृत होती है, यदि वह पीड़ित हृदय से निकली कराह या चरम उल्लसित हृदय से फूटा गीत नहीं, यदि वह कोई सवाल या किसी सवाल का जवाब नहीं, तो वह निर्जीव है।’ साहित्यकार बेलिंस्की ने ऊपर की ये पंक्तियां साहित्य के चरित्र को स्पष्ट करते हुए लिखी थीं।

‘कला की साधना कला के लिए’ एक छायावादी नारा है जो अब काफी पुराना पड़ गया है। इसे याद करना मरे घोड़े को चाबुक से मारकर पुनर्जीवित करना होगा। अब तो साहित्य का संबंध कला की अपेक्षा जीवन से ज्यादा हो गया है। अक्सरहा यह कहा जाने लगा है कि ‘कला जीवन के लिए’ है। सचमुच पवित्र साहित्य वही है जो मनुष्य को उसके बेहतर जीवन के लिए मार्गदर्शन करे तथा परिस्थितियों का निर्माण करे।

साहित्यकारों के बीच इसके चरित्र को लेकर काफी गरमागरम बहसें हुई हैं। प्रतिक्रियावादी ताकतों ने इसे तोड़-मरोड़कर परिभाषित करने की कोशिश की है। लेकिन असलियत तो यह है कि साहित्य बगैर चरित्र के जीवित ही नहीं रह सकता है। बर्तोल्त ब्रेख्त ने, साहित्य का वर्ग चरित्र होता है, को पुष्ट करते हुए लिखा था, ‘लेखन द्वारा लड़ो। दिखा दो कि तुम लड़ रहे हो। जानदार यथार्थवाद। यथार्थ तुम्हारे पक्ष में है, तुम भी यथार्थ का पक्ष लो। जिंदगी को बोलने दो। उसे बिगाड़ो मत।’ सचमुच सच्चा साहित्य वही है जिसमें जिंदगी की पुकार हो। जिंदगी की रक्षा के लिए लिखा गया साहित्य ही असली साहित्य है।

साहित्य सत्य है। सत्य सदा सत्य होता है। सत्य को झुठलाया नहीं जा सकता। उदाहरण के तौर पर आप ले सकते हैं-गैलिलियो ने कहा था कि पृथ्वी घूमती है। इस सत्य को धार्मिक नेताओं ने न सिर्फ गलत कहा था बल्कि उस पर प्रचंड प्रहार भी किया था। लेकिन आज इसे सत्य के रूप में देखा जाता है। सत्य प्रचंड होता है। इसकी तेज-तर्रार ज्याति हमेशा चमकती रहती है। यह छिपाये छिप नहीं सकती। अतः जिस चीज का अस्तित्व है, उसे स्वीकारना ही पड़ेगा। छिपाने और अस्वीकारने का प्रयास असाधारण दक्षता के बावजूद निरर्थक सिद्ध होगा।

वर्ग-चरित्र वाले साहित्य पर अक्सर प्रचार होने का आरोप लगाया जाता है। कुछ साहित्यकारों ने लुशून पर भी प्रचार का आरोप लगाया था। अपने ऊपर लगाये गये आरोप को खंडित करते हुए उन्होंने लिखा था कि अमरिकन लेखक सिंक्लेयर ने साहित्य को प्रचार मात्र माना है। यह सत्य है। साहित्य लेखक के विचारों की अभिव्यक्ति है। वह चाहे तो अपना सम्पूर्ण जीवन उसमें लिपिबद्ध देख सकता है। जब साहित्य लेखक की अभिव्यक्ति है तब ज्योंहि वह व्यक्ति द्वारा सृजित होकर बाहर आता है, तभी सारा का सारा साहित्य प्रचार हो जाता है। साहित्य को लेखक के जीवन की घटनाओं से अलग नहीं किया जा सकता। और अगर बात ऐसी है कि साहित्य प्रचार है तो क्या सारा का सारा प्रचार साहित्य है ?

आजकल साहित्य में एक नयी लेखन प्रणाली अपनाने की बात की जा रही है। इस बात की चर्चा जोरों पर है कि साहित्य को सेकुलर तथा निष्पक्ष होना चाहिए। यह दो शब्द सेकुलर और निष्पक्ष हमारे सामने प्रश्नचिह्न लाकर खड़ा कर देते हैं। आज यह अलग विवाद का रूप धारण कर लिया है। क्या सचमुच वर्गमुक्त लेखन संभव है ? दरअसल यह भी एक पूंजीवादी ‘मिथ’ है जिसका पतिक्रियावादी ताकत काफी इस्तेमाल कर रहे हैं। संक्षेप में, वर्गमुक्त लेखन संभव नहीं हो सकता। इस संदर्भ में लेनिन ने कहा था-‘कोई भी व्यक्ति वर्गों का सम्बन्ध समझ लेने के बाद एक या दूसरे वर्ग का पक्ष लिए बिना, उस वर्ग की सफलता पर आह्लादित हुए और उसकी विफलता पर निराश हुए बिना नहीं रह सकता।’ साहित्य में किसी खास वर्ग का पक्ष लेना जरूरी हो जाता है। सच को सच कहने की ताकत साहित्य में होनी चाहिए। वही साहित्य पवित्र है जो मनुष्य को बेहतर जीवन जीने के लिए प्रेरित करता है। साहित्य के चरित्र के बारे में रामविलास शर्मा ने कहा था कि असली साहित्य वही है जो लोगों को लड़ना सिखाए। वैसा साहित्य जो लोगों को व्यवस्था से लड़ने के लिए प्रेरित नहीं करता हो साहित्य नहीं कहला सकता। डा. शर्मा के शब्दों में साहित्य का काम बेचैनी पैदा करना है सुलाना नहीं। साहित्य को किसी खास वर्ग का पक्षधर होना चाहिए। उसे सर्वहारा का पक्ष लेना चाहिए। यह हमेशा से शोषितों और पीड़ितों का वर्ग रहा है। साहित्य समाज का लिखा जाता है और जब समाज ही वर्गों में विभक्त हो तो साहित्य में वर्ग-भेद क्यों नहीं होगा। निश्चित रूप से साहित्य किसी खास वर्ग का पक्ष लेगा। विशेष वर्ग में अपनी विशेष रुचि दिखाएगा। साहित्य का अपना चरित्र होता है। तब तो महत्वपूर्ण बात यह है कि वह चरित्र किस वर्ग का है। साहित्य की पक्षधरता की बात को स्वीकारते हुए लुशून ने लिखा था-‘मैं उनलोगों की मौन आत्मा की तस्वीर पेश करना चाहता हूं जो हजारों वर्षों से चट्टानों के बीच घास के रूप में अंकुरित है।’                                                                                                      

प्रकाशन: आत्मकथा,  27 सितंबर 1987।

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