Friday, September 3, 2010

अयोध्या की खुदाई: हारे को हरिनाम


और अंततः आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया की अयोध्या के विवादित स्थल से संबंधित सरकारी रिपोर्ट एक नई बहस के साथ हमारे बीच आ चुकी है। पक्ष और विपक्ष के लोग मामले को लेकर अपने-अपने अखाड़ों में दंड पेलने लगे हैं। इतिहास सर्वथा निरीह और लाचार टुकुर-टुकुर मुंह ताक रहा है। विपक्ष के लोग रिपोर्ट में उल्लिखित तथ्यों की अनैतिहासिकता, अवैज्ञानिकता तो प्रमाणित कर ही रहे हैं, जांच एवं खुदाई की पूरी प्रक्रिया को भी संदेहास्पद और प्रामाणिकता से कोसों दूर की बता रहे हैं। इस तरह एक अंतहीन सिलसिले की शुरुआत हो चुकी है। ऐसे में हमें सोचना होगा कि लोगों के आपसी मुद्दों को सुलझाने में इतिहास एवं ऐतिहासिक तथ्यों की भूमिका कितनी कारगर हो सकती है। या फिर एक विषय के रूप में इतिहास इस तरह की अंतहीन बहसों के लिए कोई सुविधा छोड़ता है क्या? इस ‘आम सहमति’ के दौर में इतिहास के तथ्यों पर मतभिन्नता कहीं अपरिहार्य तो नहीं! इतिहास को इस त्रासदी से भला हम कितना बचा सकते हैं!
 
अव्वल तो ऐतिहासिक तथ्य उतने भोले और निर्दोष नहीं होते जितने की अपेक्षा मार्क्सवादी मित्रों ने कर रखी थी। दरअसल इतिहास के तथ्य इतिहासकार के पूर्व निर्धारित फैसलों से निर्देशित होते हैं। यह कथन सुनने में जितना ही अटपटा लगता है, वास्तविकता उतनी ही इसके करीब है। कहा जाता है कि इतिहास के तथ्य खुद बोलते हैं,मगर यह बात सही नहीं है। इतिहास के तथ्य तभी बोलते हैं जब इतिहासकार उनसे बोलवाता है। यह वही (इतिहासकार) तय करता है कि किन तथ्यों को किस क्रम और संदर्भ में मंच पर बुलाएगा। इतना ही नहीं, एक इतिहासकार उन्हीं तथ्यों का चुनाव करता है जो उनके दृष्टिकोण का समर्थन करते हैं या जिस दृष्टिकोण को वे भविष्य के लिए छोड़ जाना चाहते हैं। इतिहासकार के बगैर तथ्यों की कोई अहमियत नहीं और तथ्यों के बगैर इतिहासकार नामक जीव की भी कल्पना नहीं की जा सकती। इतिहास के इस डायलेक्टिक्स को हमें गंभीरतापूर्वक समझना होगा।
 
इतिहास से आज हम केवल सबक ले सकते हैं। ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर वर्तमान के फैसले अगर निर्धारित होने लगे तो इसके कई गंभीर खतरे सामने आ सकते हैं। अगर प्राप्त ऐतिहासिक तथ्य यह साबित ही कर दें कि बाबरी मस्जिद, मंदिर तोड़कर बनायी गई थी तो क्या वहां इसी आधार पर मंदिर बना लेने की छूट मिल जानी चाहिए? किसे मालूम है कि आज जहां चर्च की दीवारें खड़ी हैं, वहीं कल को क्या थीं? मध्ययुगीन फैसलों से ‘उत्तर-आधुनिक’ समाज को हांकना कहां तक उचित और विवेकसंगत होगा-मेरे लिए एक गंभीर मामला है।
 
अतीत के तथ्य अतीत के फैसले हैं, उनके आधार पर आधुनिक समाज को शासित होने की इजाजत नहीं दी जा सकती। ऐसे गंभीर मामलों में इतिहास के तथ्यों से ज्यादा इतिहास-बोध हमारी मदद कर सकता है। एक वैसे देश में, जहां इतिहास-बोध की समृद्ध परंपरा रही हो, ऐतिहासिक तथ्यों पर निर्भरता ‘हारे को हरिनाम’ नहीं तो और क्या है!                                  
प्रकाशन: कैंपस संधान, पत्रकारिता विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय, दक्षिण परिसर, दिल्ली, 16-31 अक्टूबर 2003। 

1 comment:

Sharif Khan said...

इतिहास के तथ्य तभी बोलते हैं जब इतिहासकार उनसे बोलवाता है। यह वही (इतिहासकार) तय करता है कि किन तथ्यों को किस क्रम और संदर्भ में मंच पर बुलाएगा। इतना ही नहीं, एक इतिहासकार उन्हीं तथ्यों का चुनाव करता है जो उनके दृष्टिकोण का समर्थन करते हैं या जिस दृष्टिकोण को वे भविष्य के लिए छोड़ जाना चाहते हैं।
it is a fact.

please see my post on babri masjid
http://haqnama.blogspot.com/2010/08/babri-masjid-2-2-sharif-khan.html