अरविंद शेष said:
राजू जी,
अच्छा यह है कि आपके इस मूल्यवान “सलाह” से बहुत पहले मैं अपना, अपनी समझ का और अपनी (औंधी) खोपड़ी का मूल्यांकन करना शुरू कर चुका था। शायद तभी मुझे अपनी खोपड़ी को औंधा करने की जरूरत महसूस हुई थी। क्योंकि सदियों से सीधी खोपड़ी पर गर्व करने का हश्र मुझे यही दिख रहा है कि भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन यानी यानी इसरो का मुखिया हर अंतरिक्ष यान के प्रक्षेपण के पहले एक मंदिर में जाकर तीन घंटे का जाप कराता है और अध्ययन या विचार के स्तर पर खुद के संपूर्ण होने का दंभ भरते किसी व्यक्ति को अपनी बहनों के बरक्स ज्यादा बढ़िया खाना खिलाने वाली मां पितृसत्ता का पैरोकार नजर आती है।
बहरहाल, आपके अध्ययन पर मैं (अगर) रीझा हुआ था, तो उस वक्त भी मेरी आंखें मुंदी हुई नहीं थीं। सचमुच उसमें विस्तृत उद्धरणों और व्याख्य़ाओं के सिवा मुझे विचार जैसा कुछ नहीं लगा था। जबकि मेरा मानना है कि वे सारे अध्ययन पाखंड हैं, जो आपके विचारों के खोखलेपन को दूर नहीं करते हैं, आपके भीतर आलोचनात्मक विवेक पैदा नहीं करते हैं। इसलिए आपको साफ कर दूं कि आपका अध्ययन मुझे सचमुच विस्तृत लगा था, सो यह उम्मीद थी कि विचार और विवेक के स्तर पर भी आप अपनी सांस्कृतिक जड़ों से बाहर आ सके होंगे। लेकिन अपनी इस टिप्पणी को पढ़िएगा और कर सकें तो विचार कीजिएगा कि अपनी बातों से सहमत नहीं होने वाले व्यक्ति की खोपड़ी आपको क्यों औंधी लगने लगती है और दिमाग क्यों अविकसित लगने लगता है। विकसित घोषित होने के लिए अगर आपके सामने सिर नवाना है, तो आपको इस परंपरा को निबाहने के लिए “अपनी संस्कृति” के सुपात्र ढ़ूंढ़ने होंगे।
आपने सलाह दी है कि मैं आपके ऊपर न झल्लाऊं, खुद पर झल्लाऊं। आपकी इस प्रतिक्रिया ने सचमुच वैसी ही स्थिति सामने रख दी है। इसलिए आपका आपका आभार..। यह बात अपनी औंधी खोपड़ी में नहीं आने का बुरा क्या मानना। अगर खोपड़ी सीधी होगी, तभी आपके जैसा आलोचनात्मक विवेक पैदा कर पाऊंगा, जो बहुत सारे लोगों को विरासत में मिलती है। वैसे मैंने इस टिप्पणी के शुरू में ही अपनी औंधी खोपड़ी पर संतोष जाहिर कर दिया है।
अर्चना की मौत को याद करते हुए आपको दुख होता है, क्योंकि उसके भीतर भी आपकी परिभाषा वाला आलोचनात्मक विवेक विकसित नहीं हुआ था और उसने भी मेरी तरह केवल रीझना जाना था। और आपके हिसाब से उसके अंत का कारण भी यही था।
आपने बिल्कुल ठीक कहा। पहले उसे अपने विवेक का विकास करना चाहिए था, इसके लिए अपने पूर्वजों से मिले ज्ञान को अपने संस्कारों में उतारना चाहिए था, मनुस्मृति का अध्ययन करना चाहिए था, अपने माता-पिता को अपने लिए योग्य वर ढूंढ़ने का ठेका देना चाहिए था, उसे अपने ब्राह्मण होने की चेतना को बचाए रखते हुए सूरज प्रकाश के दलित होने और दलित समाज की संस्कृति का ध्यान रखना चाहिए था, और वह सब कुछ करना चाहिए था जो परिवार और समाज को बचाए को जरूरी होता है। इससे विकसित विवेक उसे सूरज प्रकाश पर रीझने से पहले ही उसके भीतर के सामंती संस्कारों वाले पुरुष के बैठे होने की “खबर” देता और वह उससे दूर रहती। उससे वह खुद भी सुरक्षित रहती और जिंदा रहती।
आपने सलाह दी है और शुभकामना भेजी है कि “ऐसी उपलब्धियों का अंत तो आप अपनी आंखों से देख चुके न शेष जी? ऐसे में. इतनी दूर बैठा मैं तो आपके दीर्घायु होने की महज शुभकामना भेज सकता हूं।”
तो राजू जी, आप जैसे लोगों की तमाम “सदिच्छाओं” के बावजूद हजारों-लाखों अर्चनाएं आपके द्वारा परिभाषित “विवेक” की जरूरत नहीं समझतीं और अपनी राहों पर आगे जा रही हैं। विवेक किसी ब्रांडेड कंपनी की कमीज नहीं है जिसे किसी शोरूम से खरीद कर पहन लिया जाए तो उसके बाद लिए जाने वाले फैसले पर अफसोस नहीं होगा। समय और अपनी समझ के मुताबिक कोई व्यक्ति फैसला लेता है और उसके लाभ-हानि का सामना भी करता है। अर्चना ने अपने विवेक का सही इस्तेमाल किया था कि उसने सूरज प्रकाश में इंसान होने की संभावना देखी और साथी के रूप में उसे चुना। अर्चना ने कोई अपराध नहीं किया था, बल्कि जड़ समाज को नकार कर उसने मनुष्य समाज (आपके हिसाब से इसकी दरकार है) की ओर कदम बढ़ाया था। अब सूरज प्रकाश एक वहम ओढ़े हुए था, इसका अपराधी सूरज प्रकाश है। हां, खोल उतरने के बाद सूरज प्रकाश से मुक्त होने के बजाय भावुक होकर जान दे दी, अर्चना का कसूर यह है। अर्चना अपने प्रेम को लेकर भावुक थी, अपनी स्त्रीवादी चेतना के साथ अगर वह अपनी अस्मिता को लेकर भी इतनी ही भावुक होती तो शायद यह नौबत नहीं आती। किसी समय विवेक अगर कोई फैसला लेने को कहता है, वह उस वक्त की जरूरत होती है। फैसले के गलत होने पर उसे बदलने में कोई उज्र नहीं होना चाहिए। यहीं भावुकता आड़े आती है। लेकिन यह भी ध्यान रखा जाए कि बिना इस भावुकता के किसी भी मानववाद की सपने देखना एक ढोंग से ज्यादा कुछ नहीं है। अब तक हमारे समाज में विवेक को लेकर एक महंथी और आचार्यी परंपरा रही है कि सही केवल महंथ सोच सकते हैं, बच्चों का भला केवल माता-पिता ही सोच सकते हैं। इससे संस्कृति बची रहती है, और इसीलिए यह कुछ लोगों के लिए सुविधाजनक और अंतिम सही सच है। अर्चना के विवेक पर सवाल उठा कर दरअसल आप जैसे लोग इस सामाजिक व्यवस्था या संस्कृति की सुरक्षा की मांग करते हैं।
रही बात मेरे लिए दीर्घायु होने की शुभकामना की, अपनी फिक्र करने के लिए मैं काफी हूं। सीखने की प्रक्रिया में लगातार हूं और आप जैसे लोग और उनके विचार मुझे समझने-सीखने के लिए बहुत कुछ देते रहते हैं। इस समाज में अब तक जी गया तो आगे भी अपने ही भरोसे जीऊंगा। इसके लिए मेरे दीर्घायु होने की शुभकामना भेजने की जरूरत नहीं। और अगर आपका संकेत कुछ “दूसरे प्रसंगों या संदर्भों” की ओर है, तो आपकी त्रासदी पर मैं सहानुभूति भी नहीं जताऊंगा।
मेरे “कुत्सित” दिमाग ने आपकी बात का जो मतलब लगाया, उसका मतलब भी आप समझ सकने में असमर्थ रहे और अपनी सफाई में फिर पहली टिप्पणी के अंतर्विरोध के साथ खड़े हो गए। आप कहते हैं कि दलित एक “मिथ्या” धारणा है, वास्तविकता नहीं। वास्तविकता है जाति-व्यवस्था। पता नहीं, इस जाति व्यवस्था में सिर्फ अपने जन्म के कारण जलालतें झेलने वाली जातियों को किस श्रेणी में रखा जाए और आपका तथाकथित मानववाद इसे किस निगाह से देखता है। आप जैसे लोगों को निश्चय ही यह कोई समस्या नहीं लगेगी। क्योंकि जाति-व्यवस्था की एक कड़वी हकीकत यह है कि जाति सवर्णों के लिए कोई समस्या है ही नहीं। जो इससे पीड़ित रहे हैं, यह उनके लिए समस्या है। अब पीड़ित वर्ग के लिए दलित शब्द का उपयोग न करके, सबल का उपयोग करें तो आप जैसे लोग जरूर संतुष्ट होंगे। लेकिन इस संदर्भ में कोई सूरज प्रकाश के मुकाम तक पहुंचे लोगों को भी पीड़ित-दलित मानने का आग्रह करता है तो यह सहानुभूति लेने की कोशिश ज्यादा कुछ नहीं।
आप कहते हैं कि “जब तक ‘ब्राह्मण लड़की’ की शादी ‘दलित लड़के’ से होती रहेगी, ऐसी घटनाओं की असीम संभावना रहेगी।’ आपका मतलब यह था कि जब तक आपकी पहचान “ब्राह्मण” और “दलित” की रहेगी, ऐसे तनावों को समाप्त नहीं किया जा सकता। आपके इस “आग्रह” का मेरे अविकसित दिमाग ने जो मतलब उसे आपके ही विकसित दिमाग ने कितना पकड़ा, उसका भी नमूने पर गौर कीजिएगा। राजू जी अपने विकसित दिमाग से बताएं कि यह पहचान कैसे खत्म होगी? क्या अर्चनाएं अपने विवेक का इस्तेमाल करके सूरज प्रकाशों से बचेंगी और सामाजिक विवेक के हिसाब से अपने कदम आगे बढ़ाएंगी या नहीं बढ़ाएंगी तब इस “पहचान” की समस्या खत्म होगी? मेरे अविकसित दिमाग ने आपकी बात को शायद फिर गलत पकड़ा होगा। आप इस “ब्राह्मण” और “दलित” पहचान के खत्म होने का रास्ता सुझाएं। बताएं कि बिना जाति को ख़ारिज़ किए और सचेत रूप से उससे बाहर आए एक “ब्राह्मण” और “दलित” पहचान कैसे खत्म होगी? सचेत रूप से बाहर आने का रास्ता कौन-सा होगा?
इस संदर्भ में मैंने कहा था “अब तक पता नहीं कितनी “दलित लड़कियां” “ब्राह्मण लड़कों” के जीवन को तार चुकी हैं। ऐसी घटनाओं के उदाहरण खोजने से भी शायद नहीं मिलें कि किसी “दलित लड़की” के “अत्याचारों” से त्रस्त होकर किसी “ब्राह्मण” लड़के ने आत्महत्या कर ली हो। आखिरकार सवाल यहां भी पुरुष सत्ता का ही है, स्त्रियां सिर्फ भुक्तभोगी हैं।”
लेकिन आप तो अपनी सुविधा के हिसाब से वाक्यांश उठाएंगे। स्त्री चाहे ब्राह्मण हो या दलित, वह अर्चना ही होगी। इसी तरह पुरुष चाहे ब्राह्मण हो या दलित, वह सूरज प्रकाश ही होगा। प्रोसेस का अधूरापन नतीजे भी अधूरा ही देगा और उसके लिए चिंतित होने की बात नहीं। कुछ लोगों के जड़ बने रहने के बावजूद समय हमेशा इसका समाधान करता है। तार देने का मतलब यह कि किसी सवर्ण पुरुष के साथ जीवन शुरू करने के बाद उसे चाहे जिस रूप में, निबाह लेना। (यों सामंती पितसत्ता और पुरुषवाद के सारे अत्याचारों के बावजूद विवाह को बचाए रख कर स्त्रियां सचमुच एक पुरुष को तारती हैं) न कि उद्धार कर देना। और उद्धार कर देना है भी यह ठेका हमेशा ऊपर वालों को क्यों मिले।
और व्यवस्था पर उंगली उठाने वाली भाषा कब व्यवस्था को प्यारी रही है कि अब वह इसे विमर्श की भाषा के रूप में स्वीकार करने लगी। मेरी बातें आपको गाली इसीलिए लगी हैं। और अब शायद ब्राह्मणवादी संस्कारों से लैस होने और मुक्त होने के प्रसंगों की परत भी खुल गई होगी। यों भी, ज्ञान के या किसी भी दंभ से पीड़ित व्यक्ति अपनी उठी उंगली से जब तिलमिलाता है, तो अपने ऊपर पड़ा एक चादर उतार फेकता है।
रही बात मेरे “प्रखर” दलित चिंतक होने की, तो आपके जिस “सूत्र” ने आपको यह जानकारी दी होगी, पहले उसे अपनी जमीन पर खड़ा होना बाकी है। क्योंकि मेरे “चिंतन” पर आपके अध्ययन की निगहबानी इतनी नहीं हुई है कि आप मुझे “प्रखर” दलित चिंतक की उपाधि देने लगें। और अगर आपकी घोषणा के हिसाब से सचमुच मैं एक “प्रखर” दलित चिंतक हुआ होता, तो तमाम धतकर्मों के बावजूद सूरज प्रकाश के निर्दोष होने के पचासों तर्क खड़े कर चुका होता। जब अर्चना झा की आत्महत्या की घटना हुई थी, जब सूरज प्रकाश को जिम्मेदार मानने के खिलाफ उसी “प्रखर” दलित चिंतन का सहारा लिया गया था और सूरज प्रकाश आज अपनी किताबों के विमोचन में मुस्कुराते हुए अपनी तस्वीरें खिंचवा रहा है, हिंदी समाज से सम्मान पा रहा है, और एक “दलित” बुद्धिजीवी के रूप में स्वीकार्यता पा रहा है।
आपकी सबसे पहली टिप्पणी में जहां पहुंच कर मेरा दिमाग झल्ला गया था कि “पितृसत्ता के पैरोकार सिर्फ बेचारे पुरुष ही नहीं हैं। जाने-अनजाने माताएं एवं बहनें भी हैं। मेरी मां बचपन में मुझे बहनों से बढ़िया खाना खिलाती रही क्योंकि मैं बेटा था। मेरी मां कोई ‘पुरुष’ नहीं थी”, मैंने सोचा कि आप इस बारे में भी मेरे अविकसित दिमाग को विकास का कोई रास्ता दिखाएंगे। इस बारे में आपकी बातों के हिसाब से चला जाए तो हमारी तमाम माताएं और बहनें पितृसत्ता की पैरोकार हैं, हथियार नहीं। पता नहीं, अस्मिता और चेतना के प्रश्नों पर कैसे विचार किया जाता होगा।
लेकिन कोई बात नहीं। आपकी दूसरी टिप्पणी ने आपके कुछ बाकी तारों को भी खोल दिया है। वैसे भी, संपूर्ण होने के दंभ में जीते किसी व्यक्ति के लिए अपनी ओर उठने वाली उंगली को तोड़ देने की कोशिश इसी व्यवस्था की खासियत है। मुझे “ब्राह्मणवादी संस्कारों” से मुक्त होने की “सलाह” के पीछे कौन-सी धमकी है, क्या इसे समझना बहुत मुश्किल है? बहरहाल, पूरी टिप्पणी में मुझे “ब्राह्मणवादी संस्कारों” से लैस होने की “सलाह” देते हुए आपने अपने सामंती संस्कारों पर पड़ा पर्दा कब उतार दिया, आपको भी पता नहीं चला होगा। आपकी इस “सलाह” पर अमल करूं या नहीं, फिलहाल आपसे भय खाते हुए आपके सामने सीस नवा कर मैदान से भाग रहा हूं। नहीं तो पता नहीं, आप कब कोई “बड़ी बात” कह दें, जो हमें पचे नहीं और हमारा दिल बैठ जाए। आप अपनी फतह का परचम लहरा सकते हैं।
संर्दभों से रहित यों ही एक घटना का जिक्र- कुछ साल पहले देश की राजधानी से तटे हाईटेक सिटी में गिने जाने वाले शहर गाजियाबाद में घर की समस्याओं के लिए एक अतिवृद्ध महिला को “ऊपरी शक्ति” का इस्तेमाल करने का जिम्मेदार बताने के बाद एक तांत्रिक की सलाह पर उसके तीन बेटों ने जूते-चप्पलों से पीटते-पीटते मार डाला। उन तीन बेटों में से एक डॉक्टर और दो इंजीनियर था। डॉक्टर और इंजीनियर बनने के लिए विज्ञान विषयों से पढ़ाई करनी होती है।
दूसरे प्रसंग का जिक्र मैंने ऊपर किया है कि इसरो का मुखिया रहे माधवन नायर किसी भी यान के प्रक्षेपण से ठीक पहले एक मंदिर में तीन घंटे की एक प्रार्थना-पूजा के आयोजन में खुद बैठता था, देवताओं से यह मांग करते हुए कि इस यान का प्रक्षेपण सफल हो…
राजू रंजन प्रसाद said: भावुकता का अंत त्रासद है!
अरविन्द शेष जी,
टिप्पणियों से गुजरते हुए मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूं कि आपको असहमति मेरी बातों से न होकर मेरे नाम से है। अर्चना की आत्महत्या मेरे लिए ‘आलोचनात्मक विवेक’ की अनुपस्थिति का नतीजा थी। आप भी तो यही कहते हैं कि अर्चना ‘भावुक होकर जान दे दी।’ मेरी और आपकी बातों में अंतर कहां है, शेष जी ? हां, इतना अवश्य कहा जा सकता है कि जहां मैं भावुकता की तिलांजलि देकर विवेक विकसित करने की वकालत करता हूं वहां आप भावुकता का महिमा-मंडन करना प्रारंभ कर देते हैं। खासकर जब आपको मालूम हो कि भावुकता कितनी आत्मघाती हो सकती है। ‘दलित’ लड़के के साथ शादी का फैसला इसी ‘भावुकता’ का फैसला था न कि आपके द्वारा आरोपित ‘विवेक’ का। आप जैसे ‘अतिशय भावुकता’ के वकीलों के रहते उसमें विवेक पैदा होने की संभावना ही कहां बच गई थी। आप महान हैं शेष जी जो ‘भावुकता’ के वशीभूत हो महान ‘मानववादी सपने’ देखते रहे हैं। हमें तो लगता है कि उस नन्हीं जान अर्चना को भी आपका यह सूत्र हाथ लग गया था कि ‘बिना इस भावुकता के किसी भी मानववाद की (के) सपने देखना एक ढोंग से ज्यादा कुछ नहीं है।’ असल अर्चना ने अपने गिर्द अविकसित लोगों की एक फौज खड़ी कर रखी थी वरना उसे मुक्तिबोध की भनक जरूर मिलती जो उसके कानों में अवश्य ही कह जाता कि भावनाएं बच्चा हैं, अगर उसे आदमी नहीं बना सकते तो उसकी हत्या कर दो। शेष जी, मैंने तो सुना है कि ‘ज्ञानात्मक संवेदन’ जैसी भी कोई चीज होती है। इस बारे में क्या चिंतन है आपका ? मेरा कहा मानें तो भावुकता पल-दो-पल के लिए अच्छी चीज है, लेकिन जब वह आपके जीवन का स्थायी मूल्य बनने लगे तो मैं भीतर से कांप उठता हूं। मुझे दुख है कि भावुकता के वशीभूत हो आप अपना अंत देख पा सकने में अक्षम हो रहे हैं। दोष आपका भी नहीं है। दिनकर ने पहले ही कह रखा है-‘जब नाश मनुज पर छाता है, पहले विवके मर जाता है।’ विवेक का मरना आदमी के मरने का पूर्वानुमान है। एक तरह से पूर्व शर्त भी।
मैंने केवल इतना कहा था कि दलित एक मिथ्या धारणा है जबकि जाति एक वास्तविकता है। इसके अंतर्य को आप नहीं समझ पाये इसलिए मैं इसे थोड़ा खोलकर कहता हूं।(वैसे विशेष ज्ञानार्थ मेरा लेख मध्यवर्गीय है दलित की अवधारणा देखें) कई साल हुए सावित्री बाई के स्कूल की 13 साल की लड़की मुक्ताबाई ने जो निबंध लिखा था उसकी भी मुख्य अंतर्वस्तु जाति-व्यवस्था का अंतर्विरोध है। वह लड़की स्वयं मांग जाति से थी। उसका मानना है कि मुख्य अंतर्विरोध जाति व्यवस्था का है। दलितों के अंदर भी महार और मांग में फर्क है। मांग जाति को महार की तुलना में निम्न सामाजिक हैसियत प्राप्त है। उस निबंध में दलितों के भीतर ब्राह्मणवादी सोच के अस्तित्व को दिखाते हुए लिखा कि महार भी अपने से नीचेवाले को दबाते हैं और निष्कर्षतः कहा कि इस व्यवस्था (जाति की) में सभी एक दूसरे को दबा रहे हैं। इसलिए इस बात को मान लेने का कोई आधार नहीं बनता कि दलित अपने आप में सामाजिक-सांस्कृतिक एवं आर्थिक रूप से शोषितों की एक मुकम्मल इकाई है। पता नहीं शेष जी ने समाजशास्त्र की किस किताब में पढ़ लिया कि ‘जाति सवर्णों के लिए कोई समस्या है ही नहीं।’ जिस तरह तथाकथित ‘दलित’ समुदाय की जातियों में एक हायरार्की है, ठीक उसी तरह की हायरार्की जाति विशेष के अंदर भी है शेष जी। इस समस्या से कोई नहीं बचा-न सवर्ण न अवर्ण। इसलिए मेरा निवेदन है कि सामाजिक यथार्थ को जातीय आग्रह की वजह से नकारने की गलती न करें।
शेष जी, मेरा कहना था कि राजनीतिक चेतना के अभाव में एक स्त्री आसानी से स्त्री विरोधी हो जा सकती है, ठीक जैसे एक मजदूर अपने ही वर्ग का। ऐसा जान-बूझकर भी हो सकता है और अनजाने में भी। दुनिया की अधिसंख्य माताओं की तरह मेरी मां भी, अनजाने ही सही, पितृसत्ता के मूल्यों को पोषित कर रही थी। मजदूर वर्ग की चेतना से लैस होने के लिए मजदूर के घर में जन्म लेना जरूरी नहीं। एंगेल्स किसी मजदूर के घर पैदा न हुए थे किंतु वर्ग चेतना मजदूर की थी। आपको यह सब बेमानी लगेगा क्योंकि आपका ‘नारीवादी विमर्श’ स्त्री को पुरुष के विरुद्ध और पुरुष को स्त्री के विरुद्ध खड़ा करता है। ऐसा करना आसान भी है और फायदाकारक भी।
एक बात पूछता हूं शेष जी कि जिस तर्क से आप पुरुष योनि में जन्म लेकर भी स्त्री-मुक्ति की वकालत कर लेते हैं, उसी तर्क से मेरी मां पितृसत्ता की पक्षधर क्यों नहीं हो सकती?
अंत में केवल इतना ही कि भावुकता को परे झटककर विवके का दामन पकडें । भावुकता का अंत बड़ा ही कारुणिक और त्रासद है।
अरविन्द शेष जी,
टिप्पणियों से गुजरते हुए मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूं कि आपको असहमति मेरी बातों से न होकर मेरे नाम से है। अर्चना की आत्महत्या मेरे लिए ‘आलोचनात्मक विवेक’ की अनुपस्थिति का नतीजा थी। आप भी तो यही कहते हैं कि अर्चना ‘भावुक होकर जान दे दी।’ मेरी और आपकी बातों में अंतर कहां है, शेष जी ? हां, इतना अवश्य कहा जा सकता है कि जहां मैं भावुकता की तिलांजलि देकर विवेक विकसित करने की वकालत करता हूं वहां आप भावुकता का महिमा-मंडन करना प्रारंभ कर देते हैं। खासकर जब आपको मालूम हो कि भावुकता कितनी आत्मघाती हो सकती है। ‘दलित’ लड़के के साथ शादी का फैसला इसी ‘भावुकता’ का फैसला था न कि आपके द्वारा आरोपित ‘विवेक’ का। आप जैसे ‘अतिशय भावुकता’ के वकीलों के रहते उसमें विवेक पैदा होने की संभावना ही कहां बच गई थी। आप महान हैं शेष जी जो ‘भावुकता’ के वशीभूत हो महान ‘मानववादी सपने’ देखते रहे हैं। हमें तो लगता है कि उस नन्हीं जान अर्चना को भी आपका यह सूत्र हाथ लग गया था कि ‘बिना इस भावुकता के किसी भी मानववाद की (के) सपने देखना एक ढोंग से ज्यादा कुछ नहीं है।’ असल अर्चना ने अपने गिर्द अविकसित लोगों की एक फौज खड़ी कर रखी थी वरना उसे मुक्तिबोध की भनक जरूर मिलती जो उसके कानों में अवश्य ही कह जाता कि भावनाएं बच्चा हैं, अगर उसे आदमी नहीं बना सकते तो उसकी हत्या कर दो। शेष जी, मैंने तो सुना है कि ‘ज्ञानात्मक संवेदन’ जैसी भी कोई चीज होती है। इस बारे में क्या चिंतन है आपका ? मेरा कहा मानें तो भावुकता पल-दो-पल के लिए अच्छी चीज है, लेकिन जब वह आपके जीवन का स्थायी मूल्य बनने लगे तो मैं भीतर से कांप उठता हूं। मुझे दुख है कि भावुकता के वशीभूत हो आप अपना अंत देख पा सकने में अक्षम हो रहे हैं। दोष आपका भी नहीं है। दिनकर ने पहले ही कह रखा है-‘जब नाश मनुज पर छाता है, पहले विवके मर जाता है।’ विवेक का मरना आदमी के मरने का पूर्वानुमान है। एक तरह से पूर्व शर्त भी।
मैंने केवल इतना कहा था कि दलित एक मिथ्या धारणा है जबकि जाति एक वास्तविकता है। इसके अंतर्य को आप नहीं समझ पाये इसलिए मैं इसे थोड़ा खोलकर कहता हूं।(वैसे विशेष ज्ञानार्थ मेरा लेख मध्यवर्गीय है दलित की अवधारणा देखें) कई साल हुए सावित्री बाई के स्कूल की 13 साल की लड़की मुक्ताबाई ने जो निबंध लिखा था उसकी भी मुख्य अंतर्वस्तु जाति-व्यवस्था का अंतर्विरोध है। वह लड़की स्वयं मांग जाति से थी। उसका मानना है कि मुख्य अंतर्विरोध जाति व्यवस्था का है। दलितों के अंदर भी महार और मांग में फर्क है। मांग जाति को महार की तुलना में निम्न सामाजिक हैसियत प्राप्त है। उस निबंध में दलितों के भीतर ब्राह्मणवादी सोच के अस्तित्व को दिखाते हुए लिखा कि महार भी अपने से नीचेवाले को दबाते हैं और निष्कर्षतः कहा कि इस व्यवस्था (जाति की) में सभी एक दूसरे को दबा रहे हैं। इसलिए इस बात को मान लेने का कोई आधार नहीं बनता कि दलित अपने आप में सामाजिक-सांस्कृतिक एवं आर्थिक रूप से शोषितों की एक मुकम्मल इकाई है। पता नहीं शेष जी ने समाजशास्त्र की किस किताब में पढ़ लिया कि ‘जाति सवर्णों के लिए कोई समस्या है ही नहीं।’ जिस तरह तथाकथित ‘दलित’ समुदाय की जातियों में एक हायरार्की है, ठीक उसी तरह की हायरार्की जाति विशेष के अंदर भी है शेष जी। इस समस्या से कोई नहीं बचा-न सवर्ण न अवर्ण। इसलिए मेरा निवेदन है कि सामाजिक यथार्थ को जातीय आग्रह की वजह से नकारने की गलती न करें।
शेष जी, मेरा कहना था कि राजनीतिक चेतना के अभाव में एक स्त्री आसानी से स्त्री विरोधी हो जा सकती है, ठीक जैसे एक मजदूर अपने ही वर्ग का। ऐसा जान-बूझकर भी हो सकता है और अनजाने में भी। दुनिया की अधिसंख्य माताओं की तरह मेरी मां भी, अनजाने ही सही, पितृसत्ता के मूल्यों को पोषित कर रही थी। मजदूर वर्ग की चेतना से लैस होने के लिए मजदूर के घर में जन्म लेना जरूरी नहीं। एंगेल्स किसी मजदूर के घर पैदा न हुए थे किंतु वर्ग चेतना मजदूर की थी। आपको यह सब बेमानी लगेगा क्योंकि आपका ‘नारीवादी विमर्श’ स्त्री को पुरुष के विरुद्ध और पुरुष को स्त्री के विरुद्ध खड़ा करता है। ऐसा करना आसान भी है और फायदाकारक भी।
एक बात पूछता हूं शेष जी कि जिस तर्क से आप पुरुष योनि में जन्म लेकर भी स्त्री-मुक्ति की वकालत कर लेते हैं, उसी तर्क से मेरी मां पितृसत्ता की पक्षधर क्यों नहीं हो सकती?
अंत में केवल इतना ही कि भावुकता को परे झटककर विवके का दामन पकडें । भावुकता का अंत बड़ा ही कारुणिक और त्रासद है।
1 comment:
When we see properly we find that women are not free from the patriarchal spell , they sweep mercilessly many a girl child from their wombs in order to fulfil their choice of a giving birth to male children only .
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