Saturday, September 11, 2010
वे चुप क्यों हैं जिनको आती है भाषा ?
मृणाल वल्लरी का लेख लाल क्रांति के सपने की कालिमा मैंने दो बार पढ़ा-पहले मोहल्ला पर और पुनः इसे जनसत्ता में। कहना होगा कि इस लेख में मुझे ऐसा कुछ लगा जिससे कह सकता हूं कि दो बार पढ़ने में लगा मेरा श्रम बेकार नहीं गया। किन्हीं को अगर ‘नवोदित’ पत्रकार की ‘बाल-सुलभ’ टिप्पणी लगी हो, तो मात्र इस कारण से मैं इस लेख को ‘खारिज’ नहीं कर सकता। इस लेख में मुझे लगा कि पत्रकार (संयोग कहिए कि वह महिला पत्रकार हैं, यद्यपि मैं इस तरह के विभाजन में दिलचस्पी नहीं रखता।) की एक पीढ़ी तैयार हो रही है जो किसी भी मुद्दे को एक ‘संवेदनात्मक जुड़ाव’ के साथ, जिसे आप प्रतिबद्धता कह ले सकते हैं, उठाने के खतरे झेलने को तैयार है। कुछ लोग इसे ‘नाम कमाने की भूख’ और ‘नारीवादी उच्छ्वास’ से भी जोड़कर देख सकते हैं। जिनके अंदर प्रतिबद्धता और ईमानदारी की आग नहीं होती वे ऐसी बातें बड़ी ही सहजता से कह सकते हैं। बगैर किसी दुविधा और अपराध-बोध के। यहां तो लोग महात्मा गांधी तक की ईमानदारी और वचनबद्धता को ‘मजबूरी का नाम गांधी’ साबित कर डालते हैं। मृणाल तो फिर भी ‘नवोदित’ हैं।
इस लेख से अगर माओवाद विरोधी अथवा कुछ अवांछित कहे जा सकनेवाले संदेश गये हैं तो इसके कुछ कारण भी हैं। कुछ कारणों को लेख में अंतर्निहित माना जा सकता है तो कुछ को मोहल्ला लाइव के मॉडरेटर महोदय द्वारा सृजित साजिश के रूप में। साजिश का यह खेल खेला गया लेख की प्रस्तुति के स्तर पर। याद करें कि अखबार में इस लेख का शीर्षक ‘लाल क्रांति के सपने की कालिमा’ था। मॉडरेटर महोदय ने इसका शीर्षक लगाया ‘क्या माओवादी दरअसल बलात्कारी होते हैं ?’ एक नक्सल मिजाज का आदमी ऐसे शीर्षक से भरसक बचेगा। यह लेखिका का पहले से दिया हुआ शीर्षक नहीं था बल्कि मॉडरेटर के द्वारा गढ़ा सनसनी फैलाने के लिए गढ़ा गया। तिसपर मॉडरेटर की माओवाद की पक्षधरता! मुझे यह आसानी से हजम होनवाली बात नहीं लगती। अफसोस की बात तो यह है कि कुछ क्रांतिवीर ऐसी गलतियों की तरफ ध्यान न दिलाकर उल्टे लोगों को अविनाश जी का ‘पॉलिटिकल स्टैण्ड’ बताने लगते हैं। ‘स्त्री -अस्मिता’ की लड़ाई लड़नेवाले अरविन्द शेष को बताना चाहिए था कि खुद मॉडरेटर महोदय स्त्रियों के यौन-शोषण के आरोपी रहे हैं। ईमानदार पाठकों/पत्रकारों से हमारी अपेक्षा है कि ऐसे दोहरे चरित्रवाले टिप्पणीकारों की हरकत पर वे नजर रखेंगे।
मृणाल की इस बात से कि माओवादी शिविरों में महिलाओं का यौन शोषण होता है, मुझे इनकार नहीं है। शायद किसी को न होगा। अलबत्ता इसे ‘आम बात’ कहने पर असहमति बनती है। लेखिका को यह ‘आम बात’ बाहर की दुनिया में नजर आनी चाहिए थी। कहना चाहिए कि हमारे समाज में महिलाओं का यौन शोषण ‘आम बात’ है, ऐसी कुछ घटनाएं माओवादी शिविरों तक में देखी जा सकती हैं। वल्लरी का मानना सही है कि माओवादी शिविरों में भर्ती किये जानेवाले कामरेडों को मार्क्सवाद की कड़ी शिक्षा से गुजरना पड़ा होगा। यह भी कि उनके पास एक आदर्श समाज स्थापित करने का सपना है। और सारा त्याग, सारी कुर्बानी भी उसी के लिए है तो कम-से-कम वहां तो एक उच्च नैतिकता का मॉडल प्रस्तुत किया जाना था। बेशक ऐसी मांग की जानी चाहिए। लेकिन हमें मानना पड़ेगा कि इसमें सिर्फ माओवादी ही विफल नहीं रहे हैं। भारत की अन्य जो दूसरी मार्क्सवादी पार्टियां हैं उनकी पॉलित ब्यूरो में कम्युनिस्ट समाज की नैतिकता वाला मानदंड स्थापित हो सका है? शायद नहीं। आज भी इन मार्क्सवादी पार्टी कार्यालयों में चाय बनाने और झाड़ू लगानेवाले क्या उससे ऊपर उठ सके हैं? जाहिर है, उत्तर नकारात्मक होगा। हम-आप सब जानते हैं कि इन वामपंथी पार्टियों में भी खून देनेवालों की अलग श्रेणी है तो फोटो खिंचानेवालों की अलग ही प्रजाति है। हम यह भी जानते हैं कि महिलाओं का यौन शोषण करनेवाले मार्क्सवादी इन शिविरों के बाहर भी हैं। अफसोस की बात है कि यह शर्मनाक स्थिति दिल्ली के विश्वविद्यालयों के प्रतिष्ठित मार्क्सवादी शिक्षकों तक पसरी हुई है। इन ‘विभूतियों’ के खिलाफ वे चुप क्यों हैं जिनको आती है भाषा ?
वल्लरी पूछती हैं कि ‘क्या मुकम्मल राजनीतिक शिक्षण के बिना पार्टी में कॉमरेडों की भर्ती हो जाती है ?’ जिसके अंदर मार्क्सवाद के लिए थोड़ी भी सदास्था बची है, ऐसे सवाल उठेंगे। कुछ दिनों पहले केरल के पूर्व सीपीएम सांसद कुरिसिंकल एस मनोज को व्यक्तिगत जीवन में धार्मिक आस्था प्रकट/अभिव्यक्त करने के लिए पार्टी की सदस्यता से जब हाथ धोना पड़ा था तो मैंने भी अपने लेख( ) में यही सवाल उठाया था कि ऐसे लोगों को, जिनकी दृष्टि प्रगति-विरोधी एवं अवैज्ञानिक समझ पर आधारित हो, क्या कम्युनिस्ट पार्टी का सदस्य बनाया जाना चाहिए ? क्या कारण है कि लगभग पचास वर्षों तक सीपीएम (बिहार) के नेता रह चुके चुनाव की घोषणा होने से ठीक पहले जदयू का दामन थाम लेते हैं। हमें इन तमाम सवालों को (यौन शोषण समेत) सिर्फ माओवाद के संदर्भ में ही नहीं, बल्कि एक व्यापक संदर्भ में उठाना चाहिए।
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2 comments:
मृणाल वल्लरी का लेख गंभीर चिंतनपरक है. खुली नजर और गहरी समझ के साथ समाज को देखने का प्रयास. आपके विश्लेषण में भी वही प्रौढ़ संतुलन है.
The grip of any 'ism' on a man's mind should not make him blind unto the other aspects of reason . The purpose of a literary or critical activity should not be hatching a conspiracy , it should simply aim at somewhat better undertanding of a text or a situation .Raju's stand is important .
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